स्वाधीनता के बाद की उल्लेखनीय कुपरिपाटियों में अतिक्रमण और अवैध निर्माण एक मुख्य कुपरिपाटी है और यह प्रवृति बढ़ती ही जा रही है जिसके चपेटे में केवल बिलानाम सरकारी भूमि ही नहीं, आरक्षित वन भूमि, देवस्थान भूमि और चरागाहों के साथ साथ तालाबों के पेटे व नदी नालों के बहाव क्षेत्र भी आ रहे हैं। यह स्थिति पर्यावरण तंत्र व पशुधन सुरक्षा के खिलाफ़ तो है ही, जन सुरक्षा के लिये भी भारी ख़तरा है। वन क्षेत्रों में कमी से वर्षा की मात्रा पर विपरीत प्रभाव पड़ता है और चरागाह घटने से पशुधन को बचाए रखना कठिन हो जाता है। इसी प्रकार नदी नालों का बहाव क्षेत्र घटने से बाढ़ की संभावनाएं अकारण बढ़ती हैं जिससे जान माल की भारी हानि होना निश्चित है।
साथ ही यह भी ध्यान देने योग्य है कि यदा कदा जब ऐसे निर्माण तोड़े जाते हैं तो प्रभावित लोगों को होने वाली परेशानी और धनहानि के अलावा राष्ट्रीय संसाधनों की बरबादी भी होती है। मजा यह भी है कि अधिकतर मामलों में अवैध निर्माण या अतिक्रमण करने वाले तो अपनी झोली भर कर रवाना हो जाते हैं और खमियाज़ा वो भुगतते हैं जो अपनी गाढ़ी कमाई से या कर्ज करके ऐसी संपत्ति पूरी जानकारी लिये बिना खरीदते हैं ।
इतना महत्वपूर्ण मामला होने पर भी इस प्रवृति पर रोक लगाने के प्रयास तो दूर, उल्टे सरकार द्वारा ऐसे मामलों का मुफ्त या नाम मात्र की फीस पर नियमन करने की परिपाटी अपनाई जा रही है और दोषी व्यक्तियों व सरकारी अधिकारियों के खिलाफ़ कोई कार्रवाही नहीं की जा रही है जिससे इस प्रवृति को और बढ़ावा मिल रहा है। अवैध निर्माणों के नियमन की दर ऐसे निर्माणों से होने वाली एक माह के किराये की आय से भी कम है और अतिक्रमण कर के निशुल्क पट्टे लेने का काम तो चुनावों के ठीक पहले या कुछ बाद में होता ही रहता है। शहर तो दूर गॉवों की सड़कें भी इस प्रवृति के चलते गलियों में तब्दील हो गई हैं और वाहनों को खड़े रखना तो दूर उनके मुड़ने तक की जगह तक नहीं बची है। इस समस्या का मूल कारण सरकारी स्तर पर उत्तरदायित्व निर्धारण का अभाव व ऐसे निर्माँणों के टूटने के बजाय इनका देर सवेर नियमन हो जाने की उम्मीद है।
लगभग पाँच साल पहले राजस्थान पत्रिका के दिनांक 5.10.2006 के अंक में छपे एक समाचार के अनुसार माननीय सिविल न्यायाधीश, कनिष्ठ खंड, उत्तर, उदयपुर के पीठासीन अधिकारी ने जिला कलक्टर, उदयपुर को एक पत्र लिख कर आयड़ नदी के बहाव क्षेत्र में नगर परिषद् की ओर से मकान बनाने की स्वीकृतियाँ जारी करने के मामले में खेद व्यक्त करते हुए ये निर्देश दिये थे कि इस प्रकार की अनियमितता बरतने वाले दोषी अधिकारियों व कर्मचारियों के विरुद्ध कार्रवाही कर न्यायालय को अवगत कराया जावे। इसके लिये समय सीमा दो माह की तय की गई थी। ये प्रकरण आयड़ नदी के बहाव क्षेत्र में निर्मित करजाली कॉम्प्लेक्स, शहीद भगतसिंह कॉलोनी आदि से संबंधित थे जिसमें यह पाया गया था कि भूमाफ़ियाओं और भ्रष्ट सरकारी एवं स्वायतशासी निकायों के कर्मचारियों की मदद से कतिपय निहित लोगों ने अवैध अतिक्रमण कर नदी के बहाव क्षेत्र को ही संकड़ा कर दिया।
इस समाचार को छपे लगभग पाँच साल हो गए हैं और निर्धारित दो माह की अवधि कब की बीत चुकी है लेकिन अब तक न तो मौके से ऐसे निर्माण हटे हैं न ही इस नियम विरुद्ध कृत्य में लिप्त किसी अधिकारी या कर्मचारी को उत्तरदायित्व निर्धारण हो कर कोई कार्रवाही हुई हो इसकी कोई खबर समाचार पत्रों में आई है। जब न्यायालय के स्पष्ट आदेशों के बाद ये हाल है तो अतिक्रमण और अवैध निर्माण के अधिकतर प्रकरण (जो न्यायालय में नहीं पहुँचते) किस हाल में होंगे इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है।
इस स्थिति में अतिक्रमण और अवैध निर्माणों के विरुद्ध प्रभावी जनमत जागृत करना ही एकमात्र उपाय है क्योंकि लोकतंत्र के भारतीय संस्करण में सरकार कोई भी निर्णय भारी दबाव के बाद मजबूरी में ही लेती है अन्यथा कोई निर्णय ही नहीं लेना आज की राजनीति में सफलता का एक मुख्य सूत्र है। आइये, आशा करें कि जन सामान्य में ऐसी चेतना शीघ्र आयगी, मीडिया भी ऐसे प्रकरणों के मामले लगातार उजागर करेगा और सरकार भी अतिक्रमण और अवैध निर्माण को प्रोत्साहन देने वाले या अनदेखा करने वाले अधिकारियों के विरुद्ध सख्त कार्रवाही का मानस बनाएगी।
– ज्ञान प्रकाश सोनी