उदयपुर नगर अपनी झीलों, बगीचों, पुरानिर्माणों, समशीतोष्ण मौसम, गौरवमयी इतिहास, आत्मसम्मान के लिये संघर्षरत रहने की परम्परा आदि के लिये विख्यात है। पर्यटकों की इस नगरी का आकर्षण और बढ़ाने के लिये लगातार प्रयास हो रहे हैं और आयड़ नदी को सुरम्य बनाने की माँग भी इसी परम्परा की एक कड़ी है। यह कार्य न तो कठिन है, न ही बहुत ख़र्चीला और न ही इसके लिये भारी फीस वाले बाहरी कन्सलटैंटों की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डी. पी. आर.) चाहिये, बस वस्तुस्थिति का वास्तविक आँकलन करना होगा और स्थानीय विशेषज्ञों के लंबे अनुभवों का लाभ लेते हुए पक्के इरादे, पारदर्शिता और नेकनीयत से टीम भावना से काम करना होगा।
आयड़ नदी एक ऐतिहासिक नदी है जिसके किनारे 2000 वर्ष से भी अधिक पुरानी आयड़ सभ्यता के पुरावशेष आज भी विद्यमान हैं। यह नदी का उद्गम उदयपुर के उत्तर में स्थित गोगुंदा कस्बे के पास के पहाड़ों के दक्षिण-पूर्वी ढलानों में है। यह नदी मूल उदयपुर के उत्तर-पूर्व में है लेकिन नगर विस्तार के बाद व्यावहारिक रूप से अब यह नगर के बीच ही आ गई है। अपने उद्गम से लगभग 30 किलोमीटर बहने के बाद साइफन तिराहे के पास नगर सीमा में प्रवेश करती है और सेवाश्रम पुल के पास नगर सीमा छोड़ देती है। नगर में प्रवेश के पहले इस नदी या इसकी सह नदियों पर मदारड़ा, मदार बड़ा व मदार छोटा बॉंघ बने हुए हैं और थूर गॉव के पास एक एनिकट बना हुआ है जिससे मदार नहर निकलती है जो फ़तहसागर को भरती है। साइफन से सेवाश्रम पुल तक इस नदी की लंबाई लगभग 6 किलोमीटर है। सेवाश्रम पुल के बाद लगभग 15 किलोमीटर लंबाई में बहने के बाद यह नदी उदयपुर के पूर्व में स्थित उदयसागर में प्रवेश करती है। उदयसागर भरने के बाद यह नदी इसके नीचे स्थित कई बाँधों को भरती हुई चित्तौड़ के पास गोमती नदी में मिलती है जो आगे जा कर पहले चम्बल, फिर यमुना और अंत में गंगा में मिलते हुए बंगाल की खाड़ी में गिरती है। इस प्रकार यह नदी गंगा जलांचल में स्थित है।
आयड़ नदी में कुछ वर्षों पहले तक गर्मियों में भी कुछ न कुछ मात्रा में स्वच्छ पानी बहता रहता था और बीच बीच के खड्डे पानी से भरे रहते थे। बेदला गॉंव के पास स्थित एक एनिकट भी पानी से भरा रहता था। इस बहाव का मुख्य कारण यह था कि नदी के दोनों किनारों पर हरे भरे खेत या अमरूद के बाग थे और फ़तहसागर की नहर से लगभग 1000 एकड़ क्षेत्र में भरपूर सिंचाई होती थी जिससे पुर्नचक्रित पानी इस नदी को सदानीरा रखता था। गहरे ट्यूब वैल नहीं थे और गैर नहरी क्षेत्र में सिंचाई केवल गिने चुने कुओं से रहॅंट के माध्यम से होती थी जो अधिक से अधिक 10 मीटर गहराई तक से 2 – 3 लिटर प्रति सैकंड की दर से ही पानी खींच सकते थे। आज यह सिंचाई तो बिल्कुल बंद हो गई है और सैंकड़ों ट्यूब वैलों का जाल बिछ चुका है जिनमें से अधिकतर 100 मीटर से भी अधिक गहरे हैं और 10 से 15 लिटर प्रति सैकंड की दर से पानी खींचते हैं। इस कारण भूजल सतह जो पहले 5 – 6 मीटर गहराई पर थी आज 50 -60 मीटर गहराई पर जा चुकी है। भू-जल सतह यदि इतनी ही गहरी बनी रहती है तो इस नदी का सदानीरा बना रहना व्यावहारिक रूप से असंभव है।
वन विनाश और इसके फल स्वरूप पहाड़ों पर मिट्टी के कटाव के बाद उधड़ी नंगी चट्टानी सतहों के कारण वर्षा का जो पानी पहले पेड़ों की पत्तियों पर, फिर नीचे की घासफूस और झाड़ियों पर व अंत में सतही मिट्टी में रुक रुक कर सतही रूप में कम और भू जल के रूप में ज्यादा समय में बहता था वह अब तत्काल सारा का सारा सतही रूप में बह जाता है। इस परिवर्तन से वर्षा ऋतु में तो नदी में बहाव सामान्य से ज्यादा और वर्षा ऋतु के बाद बहाव सामान्य से कम हो गया है। आबादी में वृद्धि और बढ़ते निर्माणों के कारण कच्ची भू सतहें लगातार डामर या कंक्रीट से ढकी जा रही हैं इस कारण वर्षा का जो पानी वर्ष भर भूजल के रूप में सुरक्षित रहता वो अब भूतल में रिसने के बजाय वर्षा ऋतु में ही बह जाता है। इस कारण थोड़ी सी वर्षा होते ही सड़कें नदी का रूप ले लेती हैं, नाले उफान पर आ जाते हैं और मामूली अतिवृष्टि में ही बाढ़ की स्थिति पैदा हो जाती है जिससे जन धन की हानि की संभावनी बनती है। इन परिस्थितियों में आयड़ नदी के मुख्य जलांचल (केचमेंट एरिया) को पुनः यथासंभव मूल पारिस्थितिक स्वरूप की ओर लौटने के प्रयास आयड़ नदी को सदानीरा बनाने के लिये एक प्राथमिक आवश्यकता है।
जलवायु परिवर्तन के चलते उदयपुर संभाग में वार्षिक वर्षा की औसत मात्रा में तो कमी आई है लेकिन अचानक भारी वर्षा की मात्रा में भारी वृद्धि हुई है। 1973 की बाढ़ के समय उदयपुर में एक दिन की अधिकतम वर्षा 175 मिलीमीटर (7") थी जब कि अब एक दिन में 400 मिलीमीटर (16") तक की वर्षा भी इस संभाग में नापी गई है। इस परिस्थिति को देखते हुए आयड़ नदी को सुरम्य बनाने की किसी भी योजना में सर्वोपरि प्राथमिकता इसकी बहाव क्षमता अधिकतम संभावित वर्षा के अनुरूप रखने की होना आवश्यक है अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो जायगा। इसके लिये नदी के किनारों पर हुए अतिक्रमणों को हटा कर इसकी चौड़ाई को आवश्यकता के अनुरूप करना होगा। विस्तुत सर्वेक्षण कर जहॉं कहीं चट्टाने निकली हुई हों या पेटा कम ढलान में हो तो ऐसी चट्टानों को हटाना, मोड़ घटा कर ढलान बढ़ाने का कार्य भी करना होगा।
नगरीय विस्तार और बदलती जीवन शैली के साथ विगत वर्षों में पानी के घरेलू उपयोग में बहुत वृद्धि हुई है जिससे आयड़ नदी में गंदे पानी का प्रवाह बढ़ता जा रहा है। बिना किसी उपचार के स्थान स्थान पर गिरने वाला यह गंदा पानी नदी और आसपास के भूजल को गंभीर रूप से प्रदूषित कर रहा है जो जन स्वास्थ्य के लिये भारी ख़तरा है। अब तक का सोच यह है कि इस सारे गंदे पानी को पक्की पाइप लाइनों या नालों के माध्यम से किसी दूरस्थ स्थान पर पहुँचा कर वहाँ विशाल सीवेज ट्रीटमेंट प्लान्ट लगाया जावे। इस पारंपरिक केन्द्रीकृत प्रणाली में बहुत सारी जगह और भारी भरकम व्यवस्था की आवश्यकता होती है। जहाँ सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट होता है उसके आसपास तो वातावरण पूरी तरह से दूषित हो जाता है। यह केन्द्रीकृत परिपाटी विश्व के कई शहरों में हुए नकारात्मक परिणामों के बाद अब नकारी जा रही है और विकेन्द्रित रूप से स्थान स्थान पर गंदे पानी को उपचारित करने की प्रथा अपनाई जा रही है। उपचार के लिये भी प्राकृतिक और वानस्पतिक विधियों को अपनाया जा रहा है। इस परिपाटी में पानी नगर से बाहर नहीं जाता बल्कि स्थानीय रूप से ही काम में लिया जा सकता है। अतः उदयपुर की आयड़ नदी को सुरम्य बनाने की योजना में भी स्थान स्थान पर विकेद्रित जलोपचार व्यवस्था अपनाई जानी चाहिये।
जिन यूरोपीय नदियों का उदाहरण आयड़ को सुरम्य बनाने के लिये दिया जा रहा है उनमें वर्षा या बर्फ पिघलने से पानी का प्रवाह पूरे वर्ष भर रहता है और इस कारण बिना किसी बैराज या एनिकट जैसे अवरोघ के ही वहाँ नदियाँ सदानीरा रहती हैं। आयड़ नदी में उल्लेखनीय जल प्रवाह केवल वर्षा ऋतु में ही उपलब्ध है इसलिये इसके केचमेंट में स्थान स्थान पर वर्षा ऋतु का पानी रोकने और वर्षा के बाद शनैः शनेः छोड़ने की व्यवस्था इसे सदानीरा बनाये रखने के लिये आवश्यक है। आयड़ नदी के छः किलोमीटर लंबे नगरीय भाग में लगभग 20 मीटर (यानि 3.3 मीटर प्रति किलोमीटर) का ढलान है और नदी का पेटा इसके किनारों से लगभग 5 से 7 मीटर गहरा है। इस प्रकार जल संचय के लिये उपयुक्त स्थानों पर समुचित तकनीक से बैराज या एनिकट बनाने होंगे ताकि वर्षा ऋतु में बाढ़ का पानी भी सुरक्षित रूप से निकल सके और इनमें जल्दी गाद न भरे।
यह लक्ष्य प्राप्त करने के लिये समर्पण की भावना के साथ तकनीकि उत्कृष्टता से योजना की परिकल्पना से लेकर निर्माण निर्देशन तक के लिये स्थानीय विशेषज्ञों की एक टीम के चयन की आवश्यकता है जो करोड़ों की डी पी आर तैयार कर अपना अपना मतलब पूरा करने के बाद यहॉं से अदृश्य होने के बजाय किये हुए काम का यथार्थ में अपेक्षित परिणाम दे सकने की चुनौती स्वीकार करने के लिये तत्पर हों। इसके साथ ही राजनैतिक इच्छा शक्ति और निष्पक्ष व पारदर्शी व्यवस्था भी आवश्यक है क्योंकि अतिक्रमण हटाने जैसे कामों में विरोध और दबाव आना स्वाभाविक है।
– ज्ञान प्रकाश सोनी
एम. ई. (जलोपयोग प्रबंध), आई. आई. टी. रूड़की
नोट – यह लेख 10 मई, 2008 को इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स, उदयपुर के सभागार में लेखक द्वारा दी गई वार्ता पर आधारित है।