– डी. डी. देराश्री
राजस्थान राज्य में सिंचाई विभाग, वन विभाग, भू-संरक्षण विभाग, ज़िला परिषदों, पंचायतों आदि द्वारा सतही जल के संरक्षण (वॉटर हारवेस्टिंग) हेतु एनिकट बनाये जाते हैं। देखने में यह आया है कि इनके अनियोजित निर्माण से कई बार दीर्घकाल में लाभ कम और हानि ज्यादा हुई है। कई बार तो न्यायपालिका ने ऐसे एनिकटों को तोड़ने के आदेश भी दिये हैं। यह देखते हुए एनिकट निर्माण पर अंकुश लगाते हुए इनकी स्वीकृति के लिये एक सुविचारित नीति लागू किया जाना आवश्यक है। इससे संबंधित पूरा लेख आगे पढ़िये।
एनिकट शब्द मूलतः तमिल भाषा का है जिसका तात्पर्य बहती जल धारा को रोकते हुए कुछ भराव बढ़ा कर जल के सिंचाई या उपयोग हेतु बनाये गये अवरोध से है।
वर्तमान में एनिकट बनाने की जो प्रक्रिया प्रचलित हैं वह काफी त्रुटि पूर्ण है। एनिकट बनाने से पूर्व वांछित सर्वेक्षण व अनुसंधान नहीं किया जाता है और भूमिगत जल धारा के बहाव संबंधी कोई आंकलन भी नहीं किया जाता है। एनिकट की नींव को सामान्यतः सुरक्षा व सुदृढ़ता की दृष्टि से इतना ज्यादा गहरा ले लिया जाता है कि वह नदी/नालों की सख़्त चट्टानों (hard rock) में अन्दर तक चली जावे। इस परिपाटी के कारण नदी/नाले के सतही तल (surface bed level) से एनिकट की नींव सामान्यतः 2 – 5 मीटर तक गहरी हो जाती हैं एवं नाले के बाहर एनिकट भी लगभग इतना ही ऊॅंचा रहता है। इस कारण नदी/नाले के सतही तो क्या, भूमिगत बहाव को भी एनिकट रोक देता है, जिससे एनिकट के नीचे 2-3 किलोमीटर तक की लम्बाई में जल धारा सूख जाती है। यद्यपि कुछ जगहों पर एनिकट के तले और किनारों की भूमि से होकर कुछ किलोमीटर नीचे तक भी भूमि में एनिकट के कारण जल बढ़ोतरी आँकी गई हैं परन्तु यह बढ़ोतरी इससे हुई हानि के सामने नगण्य है। एनिकट की नींव को सख़्त चट्टानों में अन्दर तक ले जाने की परिपाटी से काफी कंक्रीट व चिनाई नीवों के लिये करनी पड़ती हैं जिससे एनिकट निर्माण मंहगा पड़ता है।
अतः एनिकट बनाते वक्त स्थल का चयन वैज्ञानिक/तकनिकी आधार पर होना चाहिये, वैज्ञानिक रूप से रिमोट सैंसिंग तकनिक अथवा भू-गर्भ सर्वेक्षण के आधार पर राज्य के प्रत्येक जिले में ऐसे स्थलों का चयन किया जाना चाहिये जहां एनिकट निर्माण किया जाना उपयुक्त हो। मूलतः शुष्क क्षेत्र में एनिकट निर्माण रिचार्ज बॉडीज के सिद्धान्त को ध्यान में रख किया जाना श्रेयकर होगा।
पिछले वर्षो में राहत कार्यो के तहत बड़े नदी, नालों पर एनिकट निर्माण की प्रवृति भी बढ़ी हैं एवं चूँकि सम्पूर्ण निर्माण एक बार में पूरी मंजूरी नहीं मिलने या निर्माण अवधि की कम उपलब्धता के कारण पहले नदी – नाले के कुछ हिस्से या केवल नींव में निर्माण कर तदुपरान्त शनै: शनै: आने वाले वर्षो में उसे पूरा करने की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई है। इस प्रक्रिया में पूर्ण कार्य का एक साथ न तो तकनिकी अंकलन किया जाता हैं एवं न ही निर्माण के पूरा होने पर उसके क्या प्रभाव होगें के बारे में कोई विचार किया जाता है। इस कारण से कालान्तर में ऐसे निर्माण में एनिकट की उँचाई निरन्तर बढ़ती रहने से, नदी नाले की रिजाइम स्थिति में बदलाव आता हैं तथा अधिकांश एनिकट /तटबन्ध किनारों से टूट जाते हैं, जिससे नाले का प्रवाह टूटे स्थल से होकर नयी तरफ हो जाता है। अतः एनिकट निर्माण में यह सुनिश्चितता किया जाना आवश्यक है कि पूरा निर्माण एक साथ हो तथा पूर्व में बने एनिकटों की क्षमता बढ़ोतरी बिना विचारे नहीं की जाय।
कुछ एनिकट तो शनैः शनैः इतने ऊँचे होते गये कि उन्हें एनिकट के एवज में बांध कहना अधिक उपयुक्त लगता हैं एवं कतार में बने ऐसे निर्माणों से नीचे बने मुख्य बांधों की आवक पर विपरीत असर पड़ा। रामगढ़-जयपुर के केचमेन्ट में तो जल-आवक बढ़ाने हेतु कालान्तर में निर्णय लेकर ऐसे निर्मित एनिकटों को तोड़ना पड़ा है। अतः इस प्रकार का नव निर्माण न हो जिसे बाद में तोड़ना पड़े यह ध्यान में रखना भी आवश्यक है।
भविष्य में जल-संचय-सरंक्षण की समस्त प्रक्रिया को क्षेत्र विशेष तक सीमित न रखते हुये नदी बेसिन-सबबेसिन की परिकल्पना के आधार पर करना अधिक श्रेयकर होगा। हो सकता है कि इससे ऊपर के क्षेत्र में जहां से पानी बहकर नीचे की तरफ जाता है पर कुछ प्रतिबंध भी लगाने पडें। एक निश्चित मात्रा के उपरान्त, ऊपर वाले क्षेत्रों में (जो दो या अधिक विभिन्न पंचायतों) तहसीलों / या जिलों में हो सकते हैं, जल-संचय/संग्रहण के कार्य भविष्य में सम्पादित न हों जिससे नीचे के क्षेत्रों को भी इस ऊपरी केचमेन्ट का पूरा लाभ मिलने के साथ ही उनके तटबंधीय अधिकार (राइपेरियन राइट्स) पर कोई विपरीत प्रभाव न पड़े। यह कार्य दुष्कर है परन्तु इसका कोई विकल्प नहीं है। अतः राजीव गांधी जल प्रबंधन मिशन के अन्तर्गत इस नीति का पालन प्राथमिकता एवं कठोरतापूर्वक किया जाना उपयुक्त होगा तभी राज्य में उचित जल प्रबंधन सम्भव हो पायेगा।
जिलेवार मास्टर प्लान:
राज्य में राजीव गांधी जल प्रबंधन मिशन के गठन के साथ-साथ जल संसाधन विभाग ने सभी जल उपयोग करने वाले विभागों एवं जनप्रतिधियों के सहयोग से चप्पा-चप्पा भूमि का सर्वेक्षण कर क्षेत्र में नये बनाये जा सकने वाले ”वाटर हार्वेस्टिंग स्ट्रक्चर्स“ का एक वृहत मास्टर प्लान तैयार किया है। इसे तैयार करते वक्त इस बात पर विशेष ध्यान दिया गया है कि नया प्रस्तावित कार्य किसी भी प्रकार से नीचे के बहाव में पूर्व के बने जल संचय तंत्र पर कोई विपरीत प्रभाव न डाले एवं जलांचल क्षेत्र के अतिक्रमण से पूर्व में निर्मित जल संचय कार्यो पर असर न पड़े । यह बिन्दु प्रत्येक नये बनाये जा रहे ”वाटर हार्वेस्टिंग स्ट्रक्चर“ में देखना अनिवार्य हैं । चूँकि सम्पूर्ण राज्य का एक वृहत मास्टर प्लान तैयार हो चुका हैं अतः अब किसी भी प्रकार का ”वाटर हार्वेहिस्टंग स्ट्रक्चर“ निर्माण इन्हीं चयनित स्थलों में किया जाना चाहिये चाहे वह राज्य सरकार द्वारा या किसी निजी-गैर सरकारी संस्था द्वारा निर्मित किये जावें। इसकी सुनिश्चितता करना भी राजीव गांधी जल प्रबन्धन मिशन का ध्येय होना चाहिये।
वर्तमान में प्रचलित पंच-सरपंच जनप्रतिनिधि की मांग एवं केवल उनके द्वारा निर्धारित स्थल पर ही एनिकट (वाटर हार्वेस्टिंग स्ट्रक्चर) का निर्माण कराने की प्रक्रिया को त्यागना होगा वरन ऐसे प्रस्तावित स्थलों जहां वैज्ञानिक/तकनिकी आधार पर सही हो केवल वही निर्माण होने चाहिये । जहाँ एनिकट का निर्माण स्थल वैज्ञानिक/तकनिकी स्तर पर सही नहीं पाया जावे वहाँ पर तकनिकी राय को सर्वोच्च स्थान दिया जाना व्यापक जनहित में होगा। एनिकट निर्माण में अगर स्थल पर पक्की नींव उपलब्ध नहीं हैं एवं नींव की खुदाई 2 – 2.5 मीटर से अधिक गहरी जाने की सम्भावना हो तो निर्माण प्रक्रिया में एनिकट को ”ग्रेविटी सेक्शन“ का न बनाकर ”वियर ऑन परमिएबल फाउन्डेशन“ या बट्रेस-सीढ़ीनुमा खम्बों या अन्य प्रकार से डिजाइन करके बनाना चाहिये ताकि नाले/नदी में जो भूमिगत बहाव हो रहा हैं उसमें एनिकट निर्माण बाधक न हो बल्कि उसमें एनिकट के निर्माण से बढ़ोतरी होवे ।
नये एनिकट या वाटर हार्वेस्टिंग स्ट्रक्चर बनाने से पूर्व यह देखना नितांत आवश्यक है कि क्षेत्र में पूर्व में बनाये गयी ”वाटर बाडीज“ सही रूप से हों। जहाँ परम्परागत जल स्रोत, जैसे गँवई तालाब, नाडी, खंडीन, जोहड़, तलाई, टाँके आदि उपलब्ध हैं, प्रथम प्राथमिकता उनके संरक्षण-संवर्धन को दी जाय एवं जहाँ आवश्यक हो प्रथम प्राथमिकता उनका सही रूप से पुर्नरूद्धार कर उनके उपयोग के स्तर तक उन्हें ठीक किया जाय तत्पश्चात ही अतिरिक्त आवश्यकता को दृष्टिगत रखते हुये ”नये वाटर हार्वेस्टिंग स्ट्रक्चर्स“ यानि एनिकट आदि के निर्माण कार्य को प्रारम्भ किया जाना चाहिये । ऐसा न हो नये निर्माण किये जाय एवं पुराने निर्मित संसाधनों की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया जाय।
वर्तमान में राज्य सरकार ने ऐसा निर्णय लिया है कि वह वाटर हार्वेस्टिंग स्ट्रक्चर व एनिकटों के निर्माण पर अधिक धनराशि उपलब्ध करायगी । अतः अब इस निर्णय से राज्य सरकार की जिम्मेदारी और भी अधिक बढ़ गई है कि वह अपने तंत्र को इस प्रकार सुदृढ़ करें कि एनिकटों का निर्माण गलत ढंग से न हो एवं कि एनिकट निर्माण के उपरान्त उससे लाभ केवल कुछ व्यक्तियों तक ही सीमित न रहे क्यूंकि विगत में जहां-जहां भी एनिकट बने हैं उनमें से कुछ तो केवल प्रभावी व्यक्तियों की व्यक्तिशः अहम् तुष्टी या लाभ हेतु ही बने हैं। ऐसे निर्माण भी उन कई व्यक्तियों के हक पर कुठाराघात करके किया हैं, जिन्होंने एनिकट स्थल से नीचे काफी दूरी तक नदी/नाले के भूमिगत बहाव को काम से लेने हेतु पुराने समय से डोहरिये बना रखी थी अथवा जहां नाले का पानी किसी न किसी तालाब में जाता था । अतः प्रत्येक जिला स्तर पर एक विशेष कमेटी द्वारा एनिकट स्थल चयन करने के उपरान्त ही किसी नये एनिकट के निर्माण की स्वीकृति देना श्रेयस्कर होगा । इस कमेटी में जियोलोजिस्ट, हाइड्रोलोजिस्ट, सिंचाई अभियंता, ग्राउण्ड वाटर बोर्ड के प्रतिनिधि, जन प्रतिनिधि व जहां एनिकट प्रस्तावित हैं उस क्षेत्र के एवं निचले क्षेत्र के प्रमुख काश्तकार शामिल हों तथा व्यापक विचार-विमर्श व राय के उपरांत ही नया एनिकट बनाना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि एनिकट पर धनराशि भी व्यय हो जाय व वांछित लाभ की जगह उससे उल्टा नुकसान हो जावे।
लेखक परिचय –
श्री डी डी (देवेन्द्र देव) देराश्री, राजस्थान सरकार के जल संसाधन विभाग में मुख्य अभियंता के पद से सेवानिवृत होने के बाद भीलवाड़ा नगर में अपना मुख्यालय रखते हुए जल संसाधन विकास से संबंधित विषयों पर तकनीकि परामर्शदाता का कार्य कर रहे हैं साथ ही एक जल से संबंधित स्वयंसेवी संस्था का संचालन भी कर रहे हैं। गूढ़ तकनीकि व सामाजिक विषयों पर अध्ययन,मनन व तथ्यात्मक लेख लिखना इनकी हॉबी है। यह लेख इनकी इस रूचि का परिचायक है।
संपर्क सूत्र – [email protected]