धूप से दोस्ती – अच्छे स्वास्थ्य की कुंजी

sunrise in a townकिसी भी समाज की उन्नति के लिये नागरिकों का स्वास्थ्य अच्छा होना पहली आवश्यकता है। हमारे यहाँ यह कहावत रही है कि – एक तंदुरस्ती, हज़ार नियामत। लेकिन इन दिनों देखा यह जा रहा है कि ब्लड प्रेशर, डिप्रेशन, अनिद्रा, डायबिटीज़, मोटापा, माइग्रेन, अस्थमा, हृदयरोग, आदि से ग्रस्त लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है और कम उम्र में भी ऐसे रोग होने लगे हैं। सिजेरियन डिलीवरी होना भी एक सामान्य स्थिति बनती जा रही है। ये रोग अभी भी ग्रामीण खेतिहर लागों में कम हैं लेकिन शहरी क्षेत्रों में, विशेषकर जहाँ आबादी घनी है वहाँ, ज्यादा हैं। विश्व भर में इस स्थिति पर शोध हो रही है और वैज्ञानिकों व डॉक्टरों ने यह पाया है कि ऐसी बीमारियों के बढ़ने का मुख्य कारण हमारी बदलती जीवन शैली है जो हमें सूर्य कि किरणों से दूर रखती है। हमारे शरीर की चमड़ी पर धूप की किरणें पड़ने से प्राकृतिक रूप से विटामिन डी बनता है जो हमें रोगों से बचाता है।

हम देर रात तक जागते हैं और फिर सुबह सूर्योदय के काफ़ी देर बाद उठते हैं। उठते ही स्कूल या अपने कार्यस्थल पर पहुँचने की जल्दी रहती है और यह यात्रा भी हम कार या बस में करते हैं जिसमें सूर्य की किरणों से हमारा सीधा संपर्क कम होता है। अधिकांश स्कूलों में खुले मैदान ही नहीं हैं और पी टी या खेल आदि में समय लगाना व्यर्थ माना जाने लगा है क्योंकि सब बच्चों से अपेक्षा यह रहती है कि वे अधिक से अधिक समय पढ़ाई में लगा कर अपने प्रतियोगियों से आगे रहें। टी वी संस्कृति के चलते बाहर खुले में खेलने की प्रथा समाप्त सी हो गई है और कोई ऐसा करना चाहे तो उसे नव विकसित कॉलोनियों में कहीं आसपास न तो वाहनों की भीड़ से सुरक्षित खुला स्थान मिलेगा न ही खेलने के लिये आवश्यक साथी मिलेंगे। प्रातःकालीन धूप के सानिध्य में पैदल या साइकिल चला कर स्कूल या अपने कार्यस्थल जाना समय की बरबादी व अपनी शान की तौहीन माना जाने लगा है और बढ़ते यातायात के कारण अब यह सुरक्षित भी नहीं रहा है।

sunrays in south verandahअधिकतर लोगों का सुबह शाम का समय अपने घर मे निकलता है और कुछ वर्षों पहले तक घर के बाहर की चबूतरी या पीछे के चौक या घर की तिबारी, रोस, बरामदे, आँगन आदि ऐसे होते थे जहाँ धूप सेवन किया जा सकता था। लेकिन आज की स्थिति में फ्लैट निर्माता कम से कम भू-क्षेत्र में अधिक से अधिक बिक्री योग्य निर्मित क्षेत्र बनाने के चक्कर में खुले स्थान नहीं के बराबर छोड़ता है। भू स्वामियों में भी यह पक्की धारणा बन चुकी है कि जमीन बहुत मँहगी है इसलिये अपने प्लॉट के हर भाग का उपयोग निर्माण के लिये करना जरूरी है और यह धारणा भी पक्की है कि कमरे बड़े बड़े होने चाहियें चाहे उनमें खिड़कियाँ होते हुए भी धूप नही आ सके। ऐसी भ्रान्तियों के कारण अच्छे पढ़े लिखे लोग भी अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हुए मकान बनाते समय ही जाने अनजाने यह पक्की व्यवस्था कर लेते हैं कि अधिकांश कमरों में धूप प्रवेश न कर सके। जो अधिक प्रभावशाली हैं वे अपना स्टैटस दर्शाते हुए शून्य सैट बैक छोड़ कर और मनमाने प्रोजेक्शन निकाल कर यह व्यवस्था भी कर देते हैं कि उनके पड़ौसी भी धूप न पा सकें। छत नाप के आधार पर ठेका लेने वाले, मकान मालिक या उसकी पत्नी को पटा कर, हर मंज़िल पर अधिक से अधिक प्रोजेक्शन निकालने में सफल हो रहे हैं। इनका अंदरूनी उद्देश्य यह रहता है कि प्रति वर्ग फुट या वर्ग मीटर ख़र्च तो कम आवे लेकिन उसका बिल भरपूर बन जावे। मकान मालिक को इसका एहसास बड़ी देर से हो पाता है जब वह बिल देखता है और यह पाता है कि इन प्रोजेक्शनों से उसके ही निचले कमरों में धूप नहीं आ पाती। एक से एक सटी हुई बहुमंज़िली इमारतों के प्रचलन के कारण उगते सूर्य के दर्शन तो विरले ही कर पाते हैं।

भारत में तो सूर्य को ईश्वर का ही एक रूप माना गया है और इस कारण सदियों से इसकी पूजा अर्चना होती रही है। छंदों में छंद, प्रसिद्ध गायत्री मंत्र, सूर्य का महत्व दर्शाता है और आसनों में आसन सूर्य नमस्कार, सूर्य रश्मियों के सानिध्य की महत्व बताता है। भारत में जन्मे और अमरीका में बसे श्री हीरा रतन मानेक, श्वेताम्बर जैन धर्म को मानने वाले हैं और श्री भगवान महावीर के सिद्धांतों को आत्मसात करते हुए सूर्योदय या सूर्यास्त को सीमित समय तक एक टक देखने की तकनीक अपना कर निरोग तो रहते ही हैं, इतनी ऊर्जा भी प्राप्त कर लने में सक्षम हो गये हैं कि उन्हें खाने की आवश्यकता ही महसूस नहीं होती। वे इसे आताप तकनीक कहते हैं। अमरीकि अंतरिक्ष ऐजेन्सी नासा इन्हें निमंत्रित कर चुकी है और इनके मार्गदर्शन में स्पेस फूड प्रोजेक्ट पर काम कर रही है जिसका उद्देश्य यह है कि अंतरिक्ष यात्री भोजन की कम से कम मात्रा से अपना काम चला सकें क्योंकि यात्रा के दौरान अधिक खाद्य सामग्री साथ ले जाना व्यावहारिक नहीं है।

जब सूर्य किरणें मानव शरीर पर पड़ती हैं तो इसके अल्ट्रा वॉयलेट भाग के चमड़ी से संपर्क में आने पर विटामिन डी‘का निर्माण होता है। यहाँ उल्लेखनीय है कि अल्ट्रा वॉयलेट किरणें सामान्य काँच में से प्रवेश नहीं कर सकती हैं इसलिये घर के अंदर काँच के दरवाजे या खिड़की से आने वाली धूप से विटामिन डी नहीं बन सकता है। लेकिन काँच के माध्यम से आने वाली धूप कीटाणुओं को मारने में अवश्य सक्षम होती है।

किसी व्यक्ति की उम्र, वज़न, चमड़ी के रंग, शरीर के निवस्त्र भाग का प्रतिशत, विशेष अवस्था जैसे गर्भकाल, स्थान विशेष की विषुवत रेखा से दूरी, मौसम चक्र यानि सूर्य की स्थिति (उत्तरायण से दक्षिणायन) आदि को देखते हुए प्रतिदिन 20 मिनट से 2 घंटे तक खुले में धूप में रहने से विटामिन डी की वांछित आवश्यकता पूरी होती है। इसके लिये सर्वोत्तम समय सूर्योदय से ले कर इसके दो घंटे बाद तक और सूर्यास्त से दो घंटे पहले से सूर्यास्त तक का माना गया है। मध्यान्ह पूर्व से मध्यान्ह पश्तात धूप में अल्ट्रा वॉयलेट किरणों की तीव्रता (यू वी इंडेक्स) बढ़ जाने से ये लाभकारी नहीं मानी गई हैं। इस विटामिन को आधुनिक वैज्ञानिकों ने वण्डर ड्रग का नाम दिया है। विटामिन डी शरीर में केल्शियम और फॉस्फेट के उपयोग को नियंत्रित करता है। शरीर के हर सैल और टिश्यू को स्वस्थ रहने के लिये विटामिन डी की आवश्यकता होती है और शरीर के लगभग 2000 जीन्स इससे नियंत्रित होते हैं। इस संबंध में हुई विश्वस्तरीय शोधों के परिणामों के कुछ चौंकाने वाले तथ्य निम्न प्रकार से हैं –

– जो लोग सूर्य की किरणों से कम सानिध्य रखने के कारण रक्त में विटामिन डी की कमी से ग्रस्त हैं उनके आगामी आठ सालों में किसी बीमारी, विशेष कर हृदयाघात, से मरने की आशंका पर्याप्त विटामिन डी वाले लोगों से दुगुनी है।

– विश्व में कैंसर से होने वाली मौतों मे हर वर्ष 6,00,000 मौतों से बचा जा सकता है यदि मरीज़ों में विटामिन डी की मात्रा पर्याप्त हो।

– जिन मुर्गियों को पर्याप्त धूप और प्राकृतिक रोशनी में रखा गया उनकी उम्र कृत्रिम रोशनी में रखी गई मुर्गियों से औसतन दुगुनी पाई गई, ये कम आक्रामक रहीं, इन्होंने अधिक अंडे दिये और इनके अंडों में कॉलेस्ट्रोल की मात्रा 25 प्रतिशत कम रही।

– जिन चूहों को प्राकृतिक धूप और रोशनी में रखा गया उनकी उम्र औसत 16.1 माह रही जबकि जिन्हें कृत्रिम रोशनी में रखा गया वे औसत 7.5 माह ही जिये।

– अनियमित मासिक धर्म से पीड़ित जिन महिलाओं को प्रतिदिन दो घंटे प्राकृतिक धूप का सेवन कराया गया उनकी यह पीड़ा दूर हो गई।

– अस्पताल के जिन वार्डों में प्राकृतिक धूप का प्रवेश होता था उनमें रखे गए मरीज़ बिना धूप वाले वार्डों में रखे गए मरीजों की तुलना में जल्दी रोग मुक्त हुए।

– अस्पतालों के अंधेरे वार्डों से फैलने वाले इंफेक्शन से जनित बीमारियों से मरने वाले लोगों की संख्या हृदयरोग, कैंसर और अचानक हृदयाघात से मरने वालों की संख्या के बाद चौथे नंबर पर है।

– प्राकृतिक धूप शरीर की आंतरिक बायोलॉजिकल घड़ी को सैट करती है जिससे हारमोनल प्रक्रियाएं सुधरती हैं। अनिद्रा या बाधित निद्रा से ग्रस्त रोगियों को 30 से 60 मिनट तक धूप सेवन कराने से उनकी नींद की गुणवत्ता में सुधार हुआ और उन्होंने नींद की गोलियाँ नहीं माँगी।

– मष्तिष्क के न्यूरोन सैल, जो भावनाओं को नियंत्रित करते हैं, अपर्याप्त धूप मिलने पर मरने लगते हैं जिससे डिप्रेशन और अक्रियाशीलता आती है। धूप की कमी से मष्तिष्क को सुषुप्तावस्था में लाने वाले मेलाटोनिन हारमोन का स्त्राव बढ़ जाता है जिससे मनुष्य थकावट और आलस्य महसूस करने लगता है।

– ऑस्टोपायरोसिस रोग, जिसमें हड्डियों का घनत्व घट जाता है और फ्रेक्चर होने की संभावना बढ़ जाती है, विटामिन डी की कमी से संबंधित है। जिन रोगियों को एक साल तक 15 मिनट प्रतिदिन धूप सेवन कराया गया उनकी बोन मिनरल डेन्सिटी 3.1 प्रतिशत बढ़ गई और जिन्हें ऐसा नहीं कराया गया उनकी बोन मिनरल डेन्सिटी 3.3 प्रतिशत घट गई।

– अठारह वर्षों तक किये गए अध्ययन में यह पाया गया कि जो बच्चे गर्मियों में जन्म लेते हैं उनकी लंबाई सर्दियों मे जन्मे बच्चों की तुलना में औसतन 0.5 सेंटीमीटर अधिक होती है और इनकी हड्डियों की चौड़ाई भी अधिक होती है।

– जिन महिलाओं मे गर्भावस्था के दौरान विटामिन डी की कमी रहती है उनके गर्भ में पल रहे बच्चे का मष्तिष्क विकास अपर्याप्त हो सकता है।

– धूपानुकूलित कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चे स्मार्ट, स्वस्थ और खुशमिजाज पाए गए, इनकी उपस्थिति अधिक रही और कार्य निष्पादन बेहतर रहा। इनके दाँत भी हाइजीनिक पाए गए।

– बालों में खोली (डेन्ड्रफ) नियंत्रण के लिये अल्पकालीन धूप सेवन लाभप्रद पाया गया क्योंकि धूप की अल्ट्रा वॉयलेट किरणें प्रदाहनाशी प्रभाव डालती हैं। औसत 30 मिनट का समय पर्याप्त पाया गया।

– विटामिन डी की पर्याप्तता सर्दी और जुखाम के प्रकोप से बचाती है।

– विटामिन डी इंसुलिन स्त्राव और इसके उपयोग को सुधारता है जो डायबिटीज नियंत्रण में सहायक है।

– कनाडा की सार्वजनिक स्वास्थ्य एजेंसी ने इंफ्लुएंज़ा की रोकथाम में विटामिन डी के सुप्रभाव जानने के बाद अब इसके एच 1 एन 1 स्वाइन फ्लू पर प्रभाव जानने के लिये एक अध्ययन परियोजना को मंजूरी दी है।

– लोगों में विटामिन डी का स्तर बढ़ाने से विश्व में हर वर्ष लगभग 10 लाख मौतों को टाला जा सकता है जो कैंसर, हाइपरटैंशन, हृदयरोग, ऑटिज़्म, आर्थराइटिस, डायबिटीज, टी. बी., डीमेंटिया, इन्सोम्निया, अस्थमा, डिप्रेशन, ऑस्टोपायरेसिस, आदि से होती हैं। इसके अलावा बहरेपन, माइग्रेन, माँसपेशियों के दर्द, दाँतों में केविटी, संतानहीनता, सी-सेक्शन के खतरे, सर्दी और कफ़, एग्ज़ीमा, आदि में भी विटामिन डी की पर्याप्तता से लाभ होने के प्रमाण हैं।

sunrays in closed verandahधूप सेवन का महत्व देखते हुए यह जरूरी है कि हम यह कार्य आसानी से कर सकें और इसके लिये विशेष प्रयास कर हमें हर रोज घर के बाहर किसी पहाड़ या ऊॅंचे स्थान पर नहीं जाना पड़े। हमारे आदिवासी भाई अपना मकान दूर दूर टेकरियों पर बनाते हैं और घर का मुख्य द्वार पूर्व में रखते हुए खुला आँगन रखते हैं जहाँ सुबह होते ही उन्हें स्वतः धूप मिल जाती है। शहरों में यह व्यवस्था व्यावहारिक नहीं है फिर भी प्लॉट खरीदते समय और भवन बनाते समय इस दृष्टिकोण पर भी ध्यान दिया जावे तो काफी हद तक सफलता मिल सकती है। सर्दी में सूर्य की किरणों का विशेष महत्व है। क्योंकि इस मौसम में इन किरणों की तीव्रता कम रहती है इसलिये अधिक समय तक धूप में रहना आवश्यक हो जाता है।

surays in home gardenउदाहरण के लिये यदि राजस्थान के उदयपुर शहर को लें तो यह विषुवत रेखा से लगभग 24 डिग्री उत्तर में है और इस भौगोलिक स्थिति के कारण सुबह 7 बजे सूर्य की किरणें उत्तर-दक्षिण रेखा से 62 डिग्री का कोण बनाती हैं जो 10 बजते बजते लगभग 33 डिग्री रह जाता है और दोपहर में शून्य हो जाता है। इसलिये इस मौसम में सुबह के समय ठीक पूर्व के स्थान पर दक्षिण पूर्व दिशा से अधिक धूप मिलती है और दोपहर में तो केवल दक्षिण से ही धूप आती है। इस तथ्य का ध्यान मकान का प्लान बनाते समय रखा जावे तो घर में अधिक धूप आ सकती है। दक्षिण दिशा में खुले या बंद बरामदे व लॉनधूप सेवन के लिये बहुत उपयोगी रहते हैं।

एक शोध के अनुसार वर्तमान में विश्व में लगभग 50 प्रतिशत लोगों में विटामिन डी का स्तर खतरनाक रूप से कम है और इसके अतिरिक्त 35 प्रतिशत लोगों मे यह सामान्य से कुछ कम है। इस कारण वैज्ञानिक इस समस्या पर गंभीरता से मनन करने और निदान के रूप में जीवन शैली में परिवर्तन व नगर नियोजन और भवन निर्माण पद्धति में आमूल चूल सुधार की आवश्यकता बता रहे हैं।

– ज्ञान प्रकाश सोनी, एम. ई. (ऑनर्स),

आई आई टी, रूडकी

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