भारत में मँहगाई लगातार बढ़ती जा रही है लेकिन अधिकतर कानूनों में जिन ज़ुर्मानों का प्रावधान है वे जिस साल बने थे तब से वहाँ के वहाँ ही हैं और इस कारण कई कानून लगभग प्रभावहीन होते जा रहे हैं – उदाहरण के लिये न्यायालय की अवमानना के कानून को लें तो इसमें न्यायालय के आदेशों की अवमानना सिद्ध होने पर 2000 रूपयों तक के ज़ुर्माने या छः माह तक की जेल या दोनों के दंड का प्रावधान है और अदालत ठीक समझे तो केवल क्षमायाचना पर संबंधित आरोपी को दोषमुक्त भी कर सकती है। जेल की सज़ा के लिये तो पुख़्ता सबूत और गंभीर अवमानना निर्विवाद रूप से साबित होना आवश्यक है जो अपवाद स्वरूप ही होता है बाकी मामलों में ज़ुर्माना ही लगाया जा सकता है जो आज की परिस्थितियों में इतना कम है कि लोगों का अवमानना कानून से डर ही खत्म हो गया है और आये दिन हम “स्टे के बावज़ूद निर्माण”, “न्यायिक आदेशों की धज्जियाँ उड़ी” जैसे शीर्षकों की ख़बरें पढ़ते रहते हैं। इसलिये यह आवश्यक हो गया है कि न केवल अवमानना कानून, बल्कि सभी कानून, जिनमें ज़ुर्माने का प्रावधान है उनका पुनरावलोकन कर आज की परिस्थितियों के अनुसार संशोधन किया जावे। पूरा लेख आगे पढ़िये।
भारत में न्यायालय की अवमानना का कानून 24 दिसम्बर, 1971 को पारित हुआ था (कानून संख्या – 170) जिसका उद्देश्य न्यायालय की गरिमा बनाए रखना है। इसके अनुसार अगर कोई व्यक्ति किसी सक्षम न्यायालय के निर्णय, आदेश या न्यायालय में दिये गए अपने किसी वचन की जानबूझ कर पालना नहीं करता है या कोई ऐसा कृत्य (मौखिक, लिखित अथवा व्यवहारतः) करता है जिससे न्यायालय की गरिमा भंग होती हो या नेसर्गिक न्याय की प्रक्रिया में बाधा पड़ती हो तो उसे 2000 रूपये तक के ज़ुर्माने या छः माह तक के कारावास या दोनों की सज़ा सुनाई जा सकती है।
यह कानून जब बना उस समय भारतमें साधारण अकुशल श्रमिक करीब एक रूपया रोज, यानि 30 रूपये महीना, सामान्य क्लर्क करीब 100-150 रूपया महीना और राजपत्रित अधिकारी 400-600 रूपया महीना कमाता था यानि कि न्यायालय की अवमानना साबित होने पर जो ज़ुर्माने का प्रावधान था वह एक राजपत्रित अधिकारी के औसत वेतन का चार गुना था। सोने का भाव उस समय लगभग 200 रूपये प्रति दस ग्राम था तो यह ज़ुर्माना लगभग 10 तोले सोने की लागत के बराबर था। निश्चित है कि तब लोग इस ज़ुर्माने को बहुत भारी मानते होंगे और न्यायालय के आदेशों की अममानना करने की हिम्मत नहीं करते होंगे।
आज करीब चालीस साल बाद भारत में जो स्थिति है उसमें एक राजपत्रित अधिकारी का मासिक वेतन लगभग 60,000 से 80,000 रूपये है और सोने का भाव लगभग 28,000 रूपये प्रति दस ग्राम है। इस आधार पर यह ज़ुर्माना लगभग 2,80,000 रूपये या कहें कि तीन लाख रूपये तक का होना चाहिये। इसके स्थान पर मात्र 2000 रूपये तक का ज़ुर्माना तो नगण्य सा ही है तो निश्चित है कि लोग न्यायालय के आदेशों की अवमानना करने से क्यों डरेंगे?
आज एक सामान्य वकील भी किसी मुकदमे के लिये 10,000 रूपये से कम फ़ीस नहीं माँगता तो कोई व्यक्ति 10,000 रूपये का खर्चा और बरसों का समय लगा कर अधिक से अधिक 2000 रूपये का ज़ुर्माना लगने की संभावना को देखते हुए न्यायालय के आदेश की अवहेलना होने पर मुकदमा दायर ही क्यों करेगा, यह भी विचारणीय है।
भारत में आज नगरीय विकास पूरी तरह से अनियोजित है और आवासीय प्लॉटों में व्यावसायिक निर्माण करना तथा भवन के चारों ओर नियमानुसार खुला स्थान छोड़े बिना भवन बनाना आम बात है। सरकारी ज़मीनों, चरागाहों, वन भूमि, झीलों के डूब क्षेत्र आदि पर अवैध कब्ज़े करने, अवैध खनन करने, नदियों को प्रदूषित करने जैसे कई काम आज बेधड़क किये जा रहे हैं और इन में से कुछेक प्रकरण जो न्यायालयों तक पहुँचते हैं, इन पर न्यायालय कड़े निर्देश, यथास्थिति आदेश आदि जारी भी करते हैं लेकिन इनकी पालना न होना आम बात होती जा रही है। इन परिस्थितियों में न्यायालय की गरिमा को बनाए रखना बहुत ही मुश्किल हो गया है।
यही हाल अन्य कई कानूनों का है जिनमें उस समय रखे गए ज़ुर्माने के प्रावधान आज की परिस्थितियों में अप्रासंगिक हो चुके हैँ। अतः ऐसे सभी कानूनों की समीक्षा कर ज़ुर्माने के प्रावधानों को आज की स्थिति के अनुरूप संशोधित किया जाना समय की आवश्यकता है।