राजस्थान के बाँध और उनकी सुरक्षा व्यवस्था – एक सिंहावलोकन
राजस्थान में सदियों से बाँध बना कर जल संचय की परम्परा रही है । आज़ादी से पहले राजस्थान बाँध निर्माण में अग्रणी था पर आज़ादी के बाद लगातार पिछड़ता जा रहा है । इसी के साथ पुराने बाँधों की सुरक्षा व्यवस्था भी अपेक्षित स्तर की नहीं है और सदियों पुराने बाँधों की पाल पर विकास, सौंदर्यीकरण आदि के नाम पर अनियोजित निर्माण कार्य हो रहे हैं जो इनकी सुरक्षा का ख़तरा बढ़ा सकते हैं । इस बारे में पूरा लेख आगे पढ़िये ।
जल संचयन के लिये बाँध बनाने की परम्परा भारत में सदियों पुरानी है । रावण तक ने कई सरोवर बनवाये थे यह रामायण के सुदरकांड के तीसरे छंद के इस भाग – “सर कूप वापी सोहही” (सर – सरोवर) से विदित होता है जो हनुमान जी ने लंका प्रवेश पर कहा है । बाँध निर्माण से वर्षा काल का अतिरिक्त सतही जल एकत्रित होता है जिससे पेय जल, सिंचाई व औद्योगिक आवश्यकताओं की पूर्ति पूरे साल तक होती है । बाँध बनने से बाढ़ की तीव्रता घटती है क्योंकि पानी इन बाँधों में समा जाता है । बाँध के नीचे के क्षेत्र में भू-जल का पुनर्भरण भी स्वतः ही होता रहता है । बाँध इस तरह से राष्ट्रीय धरोहर हैं और राष्ट्र की अर्थ व्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान करते हैं ।
बाँध निर्माण की परम्परा में राजस्थान भारत के अन्य प्रांतों से स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले अग्रणी रहा है जिसमें इस क्षेत्र के पुराने राजा महाराजाओं की अग्रिम सोच और योगदान का बहुत प्रभाव देखने में आता है । प्रसिद्ध राज समंद झील का निर्माण सन् 1671 में और प्रसिद्ध जय समंद झील का निर्माण सन् 1730 में हो गया था जबकि उस समय अमरीका में एनिकट तक नहीं बने थे । यूरोप में बाँध बनाने की आवश्यकता ही नहीं रहती है क्योंकि पूरे साल ही वर्षा या बर्फ गिरती रहती है।
भारत का केन्द्रीय जल आयोग राष्ट्र के बड़े बाँधों का एक राष्ट्रीय बाँध रजिस्टर संधारित करता है जिसमें 10 मीटर या इससे अधिक ऊँचे वे बाँध जिनकी भराव क्षमता 10 लाख घन मीटर से अधिक या लंबाई 500 मीटर से अधिक हो, को सम्मिलित किया जाता है । इस रजिस्टर में उपलब्ध जानकारी के अनुसार सन् 1900 तक भारत में कुल 40 बाँध थे जिनमें से 12 यानी 30% राजस्थान में थे । सन् 1950 में भारत में कुल 174 बाँध थे जिनमें से 19 यानी 11% राजस्थान में थे । सन् 2001 में भारत में कुल बाँधों की संख्या 2981 हो गई जिनमें राजस्थान के 125 यानी 4% बाँध हैं। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि हम बाँध निर्माण में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से अन्य राज्यों से पिछड़ रहे हैं ।
बाँध निर्माण में बहुत अधिक निवेश होता है और यदि रख रखाव के अभाव में ये टूट जाते हैं तो जन धन की भारी हानि तो होती ही है, बाँध के नीचे के क्षेत्र में रहने वाले कई लोगों का जीवन ही ख़तरे में पड़ जाता है । इसलिये इनकी सुरक्षा की पुख्ता व्यवस्था होना राष्ट्र हित में ज़रूरी है । राजस्थान में ऐसे कई बाँध हैं जो एक सदी से भी अधिक पुराने हैं और जब ये बाँध बनाए गए थे तब बाँध निर्माण की तकनीकें प्रारंभिक अवस्था में थीं । आज के समय में परिस्थितियाँ भी काफी बदली हैं, जंगल कटने और भू-क्षरण होने से वर्षा का पानी ज़मीन में कम और सतह पर ज्यादा मात्रा में बहने लगा है। शहरों में पक्की सतहें बढ़ गई हैं जिससे बरसात का लगभग सारा पानी सतह पर ही बहता है और स्थानीय रूप से एकाएक अतिवृष्टि (बादल फटने) की घटनाएं भी बढ़ रही हैं । इस आधार पर पुराने बाँधों के विशेष निरीक्षण व इन्हें सुरक्षित रखने के विशेष उपाय समय रहते किया जाना आवश्यक है ।
विश्व के सभी उन्नत देशों में बाँध सुरक्षा संबंधी कड़े नियम कायदे बने हुए हैं जिनमें निर्धारित अवधि में बाँधों का गहरा निरीक्षण करने और सुरक्षात्मक उपाय करने की पक्की व्यवस्था है । अमरीका, जापान, चीन जैसे देशों में ऐसे निरीक्षण इस क्षेत्र के सभी आयामों, जैसे हाइड्रोलॉजी, जियॉलॉजी, मृदा परीक्षण, स्ट्रक्चर आदि के अति दक्ष और अनुभवी व्यक्ति करें और उनकी अनुशंसाओं की पालना हो यह सुनिश्चित किया जाता है । राजस्थान में भी बाढ़ नियंत्रण और बाँध सुरक्षा प्रकोष्ठ हैं पर संसाधन, अनुशंसाओं की पालना आदि अपेक्षित स्तर की नहीं हैं।
अधिकतर पुराने बाँधों में चूना सुर्खी के मसाले से बनी पत्थर की चुनाई की पानी की तरफ़ की पक्की दीवार है और पीछे मिट्टी की पाल है जिसकी मिट्टी उस समय गधों के माध्यम से डाली जाती थी । मिट्टी की गुणवत्ता, भार सहन क्षमता आदि जाँचने का कोई साधन उस समय नहीं होता था । विश्व में टूटे बाँधों के इतिहास से यह जानकारी मिलती है कि 30% बाँध मिट्टी की पाल में चूहों के लंबे लंबे बिलों के माध्यम से पानी बह निकलने से टूटते हैं, 35% बाँध पाल की मिट्टी के अत्यधिक गीली हो कर भार सहन क्षमता घट जाने से होते हैं और शेष अन्य कारणों से होते हैं । इस कारण यह ध्यान रखना होता है कि पाल की मिट्टी न तो बहुत अधिक सूखे और न बहुत अधिक गीली रहे । चूहे सूखी मिट्टी में ही बिल बना सकते हैं और मिट्टी बहुत गीली होने पर वह रबड़ी बन कर इधर उधर होने लगती है । गीलेपन से बचने के लिये पाल की मिट्टी के निचले सिरे पर कोई अवरोध नहीं होना चाहिये ताकि पाल की मिट्टी में बाँध के रिसाव या वर्षा का पानी बेरोकटोक नीचे बह जाय ।
उस समय बाँधों की पाल के निचले सिरे पर पेड़ों की क्षंखला लगाई जाती थी । इन पेड़ों की जड़े मिट्टी को जकड़ कर रखती हैं और अतिरिक्त पानी भी सोख लेती हैं । उदयपुर के फ़तह सागर में इसे देखा जा सकता है जहाँ हर 3-4 मीटर की दूरी पर एक कीकर का पेड़ क्षंखलाबद्ध रूप से लगा हुआ है ।
आजकल विकास, मनोरंजन और सौंदर्यीकरण के नाम पर पाल की ड्रेनेज क्षमता को अवरुद्ध करने, पेड़ों की क्षंखला को क्षतिग्रस्त करने, पाल की सतह को पक्का कर इसमें पानी रिसने की क्षमता घटाने आदि के काम हो रहे हैं जो बाँधों की सुरक्षा के लिये ख़तरा हैं । आपदा सूचना दे कर नहीं आती है और इसलिये आवश्यक यह है कि ऐसे सभी काम पूरी तरह से जाँच परख कर सुनियोजित रूप से किये जायें ।
सन् 2007 में जोधपुर के पास 1889 में बना 1885 एमसीएफटी क्षमता का जसवंत सागर बाँध अचानक टूट गया था । इस बाँध की तकनीक राजस्थान के उस समय बने बाँधों जैसी ही थी । बाँध टूटने के कारणों की जाँच और ऐसी पुनरावृति अन्य बाँधो पर न हो इस पर सुझाव देने के लिये राज्य सरकार ने एक तीन सदस्यीय समिति बनाई थी । इस समिति ने बेतरतीब लगे पेड़, पाल के नीचे और पेटे में खुदे ट्यूब वैल, पत्थरों के बीच से पानी के रिसाव के साथ केल्सियम घुल कर निकल जाने से बने छेद आदि को बाँध टूटने का कारण बताया था और यह सिफारिश की थी कि बाँधों पर पेड़ लगाने के लिये एक संहिता जारी की जाय व 100 साल से अधिक पुराने बाँधों का एक विशेष वर्गीकरण कर उनके विस्तृत व नियमित निरीक्षण की व्यवस्था की जाय । इन सिफ़ारिशों पर अमल होना समय की आवश्यकता है ।
– ज्ञान प्रकाश सोनी