विकास कार्य और गांधीवाद

excavator_CAT325cविकास कार्यों के निष्पादन मे विगत कुछ वर्षों से मानव श्रम के स्थान पर मशीनों से खुदाई करने, मसाला व गिट्टी मिलाने की परिपाटी बढ़ रही है और परम्परागत रूप से अपनायी जाने वाली निर्माण विधियाँ, जैसे चूना मसाले में चुनाई व पलस्तर करना, पत्थर की पट्टियों की छत और छज्जे बनाना, घड़े हए खंडेदार पत्थरों से चुनाई करना जिसमें मसाला कम लगे, आदि चलन से हटती जा रही हैं। इन परिवर्तनों के कारण सीमेंट, स्टील, डिज़ल, आदि की खपत तो बढ़ती जा रही है लेकिन कार्यों की कुल लागत में श्रम भाग का प्रतिशत घटता जा रहा है। भारत जैसे देश में जहाँ श्रम शक्ति की बहुतायत है और सरकार को करोड़ों रूपये प्रतिवर्ष "मनरेगा" जैसी रोज़गारोन्मुखी योजनाओं पर खर्च करने पड़ रहे हैं, निर्माण कार्यों में बढ़ता मशीनीकरण और सीमेंटस्टीलीकरण गांधीवाद की श्रम और स्वदेशी की महत्ता की अवधारणा के विपरीत है। इस परिपाटी के चलते स्थानीय रूप से व्यय किया गया रूपया अधिक से अधिक मात्रा में गैर स्थानीय बनता जा रहा है और ग्रामीण श्रमिकों के स्थान पर कोई और ही फलफूल रहे हैं अत; इसकी समीक्षा किया जाना आवश्यक है। विस्तृत लेख आगे प्रस्तुत है।

एक लोक कल्याणकारी शासन की नीति यह रहती है कि वह अधिकाधिक विकास कार्य निष्पादित करावे ताकि निर्माण के समय रोजगार के अवसर सृजित हों और निष्पादित कार्यों के निरंतर उपयोग से लगातार रोजगार तो मिलें ही, कृषिजन्य, औद्योगिक व अन्य उत्पादन भी बढ़े जिससे समग्र विकास हो। स्वतंत्रता के बाद लगातार एक के बाद एक पंचवर्षीय योजनाओं के अंर्तगत ऐसे कार्य कराए जाते रहे हैं और अभी भी कराए जा रहे हैं। अकाल के समय शासन की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है और सरकार निर्माण कार्यों की संख्या में भारी वृद्धि करती है ताकि अधिक से अधिक लोगों को रोजगार मिले और उनकी क्रय शक्ति बनी रहे। निर्माण कार्यों की स्वीकृति के मापदण्ड भी ऐसे समय में सरल किये जाते हैं और स्वीकृति के अधिकार भी जिला स्तर तक विकेन्द्रित कर दिये जाते हैं।

labourersग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार के पर्याप्त अवसर सुनिश्चित करने के लिये सन् 2005 में महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा) देश के कुछ ज़िलों में प्रायोगिक तौर पर शुरू की गई थी जो अब देश के लगभग सभी ज़िलों में चल रही है। इस योजना में श्रम भाग पर न्यूनतम 60 प्रतिशत और सामग्री भाग पर अधिकतम 40 प्रतिशत व्यय करने का प्रावधान है। भारत सरकार इस योजना के श्रम भाग का सौ प्रतिशत और सामग्री भाग का पिचहत्तर प्रतिशत व्यय वहन करती है और राज्य सरकारें सामग्री भाग का शेष पच्चीस प्रतिशत व्यय वहन करती हैं। इस योजना पर सरकार लगभग 45,000 करोड़ रूपये प्रतिवर्ष खर्च कर रही है जिससे लगभग 200 करोड़ श्रम दिवसों के रोज़गार का सृजन हर साल हो रहा है। रोज़गारोन्मुखी "मनरेगा" योजना के अलावा राष्ट्रीय राजमार्ग, रेलवे, प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना आदि कई अन्य विकास कार्य भी चल रहे हैं जिनमें भारी निवेश हो रहा है। लेकिन इन कार्यों में श्रम भाग को अधिक रखने और सामग्री भाग को कम रखने की कोई बंदिश नहीं है।

किसी भी निर्माण कार्य के श्रम भाग और सामग्री भाग का प्रतिशत उस कार्य की प्रकृति और उसके लिये अपनाई जाने वाली विशिष्टियों (specifications) पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिये यदि सड़क बनाने के लिये मिट्टी डालनी है तो सामग्री भाग का प्रतिशत कम होगा लेकिन यदि डामरीकरण करना है तो सामग्री भाग ज्यादा होगा। इसी प्रकार यदि पक्का बाँध बनाना है तो श्रम भाग कम होगा लेकिन यदि मिट्टी का बाँध बनाना है तो श्रम भाग ज्यादा होगा। वन विकास, भू संरक्षण, आदि ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें सामग्री भाग लगभग नगण्य रहता है जबकि भवन निर्माण, पक्के टांके, एनिकट व बाँध आदि ऐसे काम हैं जिनमें सामग्री भाग ज्यादा होता है। एक ही काम को कराने की विधि और उसके लिये अपनाई गई विशिष्टी से भी श्रम भाग और सामग्री भाग पर भारी अंतर पड़ता है।

इन दिनों औद्योगिक व तकनीकि प्रगति के कारण कई प्रकार की भारी भारी मशीने आ गईं हैं जो श्रम जन्य कार्यों को बहुत जल्दी और कुशलता से पूरा कर देती हैं और लागत भी कई बार श्रमिकों से कार्य कराने की तुलना में कम आती है। उदाहरण के लिये जे. सी. बी. मशीन या शॉवल से मिट्टी खुदाई कार्य कराने की नीति अपनाने पर काम श्रमिकों के बनिस्पत जल्दी हो सकता है और लागत भी कम आ सकती है लेकिन श्रम भाग का प्रतिशत घटना निश्चित है। ऐसी मशीनों से काम करने में डिज़ल की बहुत खपत होती है जिसे आयात करने में हमें विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है। लागत भी कम इसलिये नज़र आती है क्योंकि डिज़ल की दरें सरकार ने वास्तविक लागत से कम रखी हुई हैं जिसका उद्देश्य सार्वजनिक परिवहन और कृषि कार्यों की लागत कम रखना है। यदि डिज़ल की वास्तविक दर लागू हो तो मशीनों से काम करना इतना आकर्षक नहीं रहेगा।

RCC srtuctureइसी प्रकार यदि आर सी सी की छत डाली जाती है तो काम जल्दी हो सकता है और कम और साधारण श्रमिक ही इसे कर सकते हैं परंतु यदि पत्थर की पट्टी डालते हैं तो अधिक व भारी कार्य में सक्षम श्रमिकों की आवश्यकता होगी और कुशलतापूर्वक कार्य करना पड़ेगा ताकि छत मजबूत रहे। लेकिन यह निर्विवाद है कि आर सी सी के लिये लगने वाले सीमेंट के उत्पादन में चूना पत्थर को खदानों से निकालने, इसे फेक्ट्री तक परिवहन करने, फेक्ट्री में इसे उत्पादित करने व इसके बाद इसे कार्यस्थल तक परिवहन करने में लगने वाली बिजली, पानी, मशीनरी, डिज़ल आदि की खपत आसपास की खदानों से पट्टी निकाल कर कार्यस्थल पर लाने में लगने वाले ऐसे ही आगतों (inputs) से काफ़ी कम होगी व जो भी होगी उसमें श्रम भाग सीमेंट की तुलना में ज्यादा होगा। यही स्थिति आर सी सी में लगने वाले स्टील की है। इस प्रकार स्पष्ट है कि परम्परागत विधि की पत्थर की पट्टियों की छत और छज्जे आदि काम में लेने की नीति अपनाने से निर्माण कार्य में समग्र श्रम भाग आर सी सी कार्य की तुलना में कहीं ज्यादा होगा।

काम मे तुरता फुरती के लिये आर सी सी के पिलर, बीम, छज्जे आदि बनाने की प्रवृति दिन दिन बढ़ रही है क्योंकि पत्थर घड़ कर यह काम करना अधिक समय लेता है और प्रत्यक्षतः मंहगा भी पड़ता है। इससे इस प्रकार के काम करनेवाले राज़ कारीगर बेरोजगार हो कर अन्य धन्धे करने लगे हैं और कारीगरी ही लुप्त हो रही है। बहुमंज़िली इमारतों, भारी पुलों, बड़े बांधों आदि के लिये तो नर्ह तकनीक अच्छी हो सकती है लेकिन सामान्य कार्यों में परम्परागत रूप से कार्य करने पर पहले पत्थर को पीस कर सीमेंट बनाने और वापस इसे ढ़ाल कर पिलर या छज्जे का रूप देने के बजाय उपयुक्त पत्थर को घढ़ कर सीधा पिलर या छज्जा बनाना ज्यादा हितकर है। पहले पत्थरों के खंडे काम में लेकर चुनाई की जाती थी जिसमें मसाला कम लगता था। अब बेरद्देदार चुनाई की जाती है या सीमेंट के ब्लोक चुने जाते हैं जिसमें सीमेंट की खपत ज्यादा है। यदि वापस पुरानी परिपाटी अपनाते हुए खंडे घड़ कर चुनाई करने की नीति अपनाई जावे तो स्थानीय रोजगार बढ़ेगा और मसाला भी कम लगेगा। ऐसी चुनाई अधिक टिकाऊ होगी और मसाले की खपत भी कम होगी। इसी प्रकार आर सी सी की सीधी बीम के बजाय घढ़े हुए पत्थरों की मेहराब (आर्च) मज़बूती में कम भी नहीं होती और श्रम भाग भी इसमें अधिक होता है। पुराने मंदिर, महल, किले आदि श्रम भाग बढ़ा कर निर्माण करने के अच्छे उदाहरण हैं।

अगर निर्माण कार्यों के निष्पादन में यह नीति रखी जावे कि चाहे प्रत्यक्ष रूप में काम की लागत अधिक आवे और चाहे समय अधिक लगे लेकिन खुदाई श्रमिकों से ही कराई जावेगी, आर सी सी के बजाय पत्थर की पट्टियॉं ही डाली जावेंगी, सीमेंट गिट्टी के फर्श के बजाय पत्थर के चौकों का ही फर्श बनाया जावेगा, आवासीय क्षेत्रों में डामर या सीमेंट कंक्रीट रोड के स्थान पर पत्थर के खरंजे की सड़क ही बनाई जावेगी, इत्यादि, तो व्यय की जाने वाली राशि का अधिक प्रतिशत श्रम नियोजन के काम आयगा, अनावश्यक परिवहन नहीं होगा और पर्यावरणीय हानियाँ कम होंगी। प्रथमतः ऐसा प्रतीत होगा कि कार्य की लागत बढ़ी है या समय ज्यादा लगेगा लेकिन कार्य के अधिक टिकाऊपन, प्रत्यक्ष रोजगार के अधिक अवसरों और डिज़ल आयात पर कम व्यय के कारण अंततः ये कार्य सस्ते, अधिक फलदायक तथा राष्ट्रहित के पाए जावेंगे।

इसी प्रकार विशिष्टियों संबंधी कुछ निर्णय ऐसे लिये जा सकते हैं जिनसे स्थानीय लोगों में कारीगरी दक्षता बढ़ सकती है और विशाल कारखानों में बनने वाली निर्माण सामग्री या उपकरणों के स्थान पर स्थानीय उत्पादन काम आ सकते हैं। उदाहरण के लिये राजस्थान में चूना पत्थर लगभग सभी जगहों पर मिलता है और कुछ ही वर्षों पहले तक स्थान स्थान पर चूना पकाया जाता था। सीमेंट की सर्वसुलभता और इससे जल्दी कार्य होने के कारण चूने का उपयोग घटता जा रहा है और मांग घटने से स्थिति यह है कि अब अच्छा चूना पकाने के भट्टे ही गिने चुने रह गए हैं। सीमेट कार्य की सही व निर्धारित समय तक तराई नहीं हो या मसाला सही एकरूपता से नहीं मिलाया जावे या मसाले में पानी की मात्रा ज्यादा हो तो इसकी मजबूती घट जाती है जबकि चूने के कार्य को तराई की आवश्यकता ही नहीं होती और यदि ढंग से काम किया जावे तो समय के साथ चूने की मजबूती बढ़ती जाती है। पुराने किले, मीनारें, महल, कोठियाँ आदि इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। अतः यदि सामान्य निर्माण कार्यों के लिये चूने का उपयोग करने की नीति अपनाई जावे तो स्थानीय रोजगार के अवसर बढ़ सकते हैं। इस नीति से अप्रत्यक्ष रूप से बिजली, पानी और परिवहन व्यय की भी बचत होगी।

यहाँ आ कर गांधीवाद की अवधारणा को अगर देखें तो श्रम और स्वदेशी की महत्ता का ध्यान रखने पर स्थानीय रूप से व्यय किया गया रूपया अधिक से अधिक मात्रा में स्थानीय बना रह सकता है। वर्तमान में सरकारें सबसे ज्यादा निर्माण कार्य कराती हैं और अगर "मनरेगा" जैसी योजनाओं में स्थानीय सामग्री व परम्परागत निर्माण विधि अपनाने की नीति अपनाने के निर्णय लिये जावें तो निर्माण कार्यों में श्रम भाग की वृद्धि होने से समान राशि में अधिक रोज़गार के अवसर सृजित होंगे तथा पर्यावरणीय हानि और डिज़ल आयात घटेगा।

– ज्ञान प्रकाश सोनी

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