उदयपुर और उदयपुर के आसपास की झीलें तो अपने पुरखों के उत्कृष्ट “जल प्रबंधन” की जीती जागती तस्वीरें हैं ही, इस शहर के स्थल चयन से ले कर शहरकोट के अंदर के भू उपयोग में हरियाली के प्रावधान, तत्कालीन भवनों के नक्शे और इनकी निर्माण शैली, जल उपयोग और जल निकास व्यवस्था आदि सभी में भी गंभीर जल प्रबंधन की झलक है । जब विश्व के अन्य देशों में “जल प्रबंधन” तो क्या बाँध निर्माण की तकनीक भी आरंभिक अवस्था में थी, उदयपुर के तत्कालीन शासक राजसमंद और जयसमंद जैसी विशाल झीलें बना चुके थे । पूरा लेख आगे पढ़िये –
(1) प्रस्तावना –
“जल प्रबंधन” एक बहुआयामी विधा है जिसके द्वारा उपलब्ध जल संसाधनों का इष्टतम उपयोग (Optimum Use) करने के उद्देश्य से जल संचय, जल संरक्षण, जल वितरण और इसके सुचारु उपयोग के व्यवस्थापन के लिये योजनाएं बनाने और क्रियान्वन करने का काम इस प्रकार से किया जाता है कि प्राकृतिक पारिस्थिकी संतुलन (Natural Environmental Balance) पर न्यूनतम विपरीत प्रभाव पड़े ।
(2) उत्कृष्ट जल प्रबंधन उदयपुर की विरासत –
उदयपुर और उदयपुर के आसपास की झीलें तो अपने पुरखों के उत्कृष्ट “जल प्रबंधन” की जीती जागती तस्वीरें हैं ही, इस शहर के स्थल चयन से ले कर शहरकोट के अंदर के भू उपयोग में हरियाली के प्रावधान, तत्कालीन भवनों के नक्शे और इनकी निर्माण शैली, जल उपयोग और जल निकास व्यवस्था आदि सभी में भी गंभीर जल प्रबंधन की झलक है । यदि हम उदयपुर की पुरानी बसावट का विवेचन करें तो यह पाएंगे कि हमने एक विलक्षण विरासत पाई है जिसे साकार रूप देने वाले स्थानीय लेकिन कम पढ़े लिखे गुणीजनों के सामने आज के उच्च शिक्षा प्राप्त इंजीनियर, आर्किटेक्ट, पर्यावरणविद् और कन्सल्टैंट बिल्कुल बौने हैं । उल्लेखनीय बात यह भी है कि जब विश्व के अन्य देशों में “जल प्रबंधन” तो क्या बाँध निर्माण की तकनीक भी आरंभिक अवस्था में थी, हमारे पुरखे राजसमंद और जयसमंद जैसी विशाल झीलें बना चुके थे ।
(3) बाँध निर्माण को अतीत में पर्याप्त महत्व –
अतीत के योजनाकारों और नीति निर्धारकों को यह विदित था कि साल के चार माह की वर्षा ऋतु में उपलब्ध पानी का अधिकाधिक संग्रह ही कुशल जल प्रबंधन का मूल आधार है और इसलिये उन्होंने बाँध निर्माण को पर्याप्त महत्व दिया । उस समय जन सुरक्षा राज्य का मुख्य दायित्व था और आये दिन युद्ध होते रहते थे उस कारण संसाधनों की कमी होते हुए भी उदयपुर क्षेत्र में वर्षा के समय औसत जल उपलब्धता का 100% उपयोग कर लिया गया था और चार पाँच साल में एक बार ही पानी उदयसागर से ओवरफ़्लो हो कर आगे जा पाता था । राजस्थान के जल संसाधन विभाग के “विज़न – 2045” के अनुसार राजस्थान में 16 अरब घनमीटर उपयोग योग्य पानी में से अभी तक 10 अरब घनमीटर (62.5%) पानी के उपयोग हेतु बाँध बनाए जा चुके हैं और 6 अरब घनमीटर पानी के उपयोग हेतु योजनाएं बनाई जानी हैं। स्वतंत्रता के 66 वर्ष बाद राज्य की इस स्थिति को देखते हुए अतीत के उदयपुर की 100% जल संग्रह व्यवस्था की दाद देनी ही होगी । केन्द्रीय जल आयोग द्वारा संधारित राष्ट्रीय बाँध रजिस्टर के आँकड़ों के अनुसार सन् 1900 तक देश में कुल 64 बाँध थे जिनमें राजस्थान के 15 बाँध (23%) थे और ये अधिकांश मेवाड़ क्षेत्र के थे । सन् 2009 में देश के कुल 5101 बाँधों में से राजस्थान में 203 बाँध (4%) ही हैं । सन् 1900 में केवल महाराष्ट्र राज्य राजस्थान से आगे था जहाँ 20 बड़े बाँध थे। आज महाराष्ट्र में 1821 बाँध हैं । स्पष्ट है कि राजस्थान और उसके साथ ही मेवाड़ क्षेत्र बाँध निर्माण कर जल संग्रह करने में गंभीर रूप से पिछड़ गया है । आज भी कोटड़ा क्षेत्र में 4 जयसमंद के बराबर पानी राज्य के बाहर जा रहा है और माही नदी के पानी के उपयोग के लिये गुजरात से हुए समझौते के अनुरूप हमारे हिस्से को हम काम में नहीं ले पा रहे हैं ।
(4) मानसून पर निर्भर वर्षा में वर्ष दर वर्ष भारी कमी-बेशी की अतीत के नियोजकों को अच्छी जानकारी –
अपने देश में वर्षा मानसून पर निर्भर है इस कारण साल में तीन चार माह की वर्षा ऋतु में ही वर्षा होती है और वर्ष प्रतिवर्ष की वर्षा की मात्रा में अंतर भी बहुत रहता है। यदि उदयपुर के परिपेक्ष में देखें तो यहाँ की औसत वार्षिक वर्षा 1961 से 2013 (यानि 53 वर्षों) के आँकड़ों के आधार पर 604 मिलीमीटर (23.8″) है । इस अवधि में सर्वाधिक वर्षा सन् 1973 में 1095 मिलीमीटर (43″) व न्यूनतम वर्षा सन् 1987 में 206 मिलीमीटर (8″) नापी गई है । वर्षा के आँकड़ों के विश्लेषण से यह विदित होता है कि हमारे यहाँ 10 साल में 5 साल सामान्य वर्षा के, 3 साल अनावृष्टि के और 2 साल अतिवृष्टि के रहते हैं। अनावृष्टि के साल में जल की आवक औसत से 25% ही रह सकती है जिससे सूखा पड़ जाता है और झीलें खाली रह जाती हैं तथा अतिवृष्टि के साल में जल की आवक औसत से 10 गुना तक भी हो सकती है जिससे बाढ़ का ख़तरा उत्पन्न हो जाता है और फ़सलों के गलने की संभावना बनती है । हमारे पुरखे यह जानते थे कि मानसूनी प्रकृति के कारण वर्षा में वर्ष दर वर्ष भारी अंतर रहना निश्चित है और कभी एक साथ दो साल अतिवृष्टि के तो कभी एक साथ दो साल अनावृष्टि के हो सकते हैं। इसलिये उन्होंने वर्षा ऋतु में उपलब्ध पानी के अधिक से अधिक संग्रह करने के लिये विशाल जलाशय बनाने की नीति अपनाई । झीलों की जल संग्रह क्षमता तालिका – 1 के अनुसार उन्होंने औसत जल आवक से औसतन दुगुनी निर्धारित करने की नीति अपनाई जिससे अतिवृष्टि वाले वर्ष का अतिरिक्त पानी भी बाँध में संग्रहित हो और अनावृष्टि के वर्षों में काम आ सके।
तालिका – 1 – औसत जल आवक की तुलना में उदयपुर की झीलों की जल संग्रह क्षमता
क्रमांक | नाम बाँध | जलग्रहण क्षेत्रफल (वर्ग किलोमीटर) | अनुमानित औसत आवक (लाख घनमीटर) | कुल जल संग्रह क्षमता (लाख घनमीटर) | औसत आवक का प्रतिशत | |
1 | बड़ी | 15.6 | 13.3 | 86.6 | 651 | % |
2 | फ़तहसागर | 40.6 | 30.6 | 83.8 | 274 | % |
3 | स्वरूपसागर – पीछोला | 131.3 | 98.6 | 108.1 | 110 | % |
4 | उदयसागर | 196.9 | 126.9 | 311.5 | 245 | % |
269.4 | 590.0 | 219 | % |
आज के विशेषज्ञ बाँध की लागत घटा कर लाभ लागत का अनुपात निर्धारित मापदंडों के अनुरूप करने के लिये औसत जल आवक की तीन चौथाई जल संग्रह क्षमता ही रखने का सिद्धांत अपनाते हैं जो यहाँ की परिस्थिति के अनुकूल नहीं है । अतः स्वाकृति के मापदंडों में बदलाव आवश्यक हैं।
(5) अंतः जलांचल जल स्थानांन्तरण (Inter Basin Water Transfer) –
अंतः जलांचल जल स्थानांन्तरण की चर्चा विगत कुछ वर्षों से ही शुरू हुई है लेकिन तथ्य यह है कि आज से सवा सौ साल पहले ही थूर के पास आयड़ नदी पर एक एनिकट बना कर इस नदी पर बने मदार बड़ा व छोटा तालाबों के पानी को फ़तहसागर में एक फीडर नहर के माध्यम से स्थानांतरित करने का काम हमारे पुरखे कर चुके थे । इसी तरह पीछोला व फ़तहसागर को आपस में एक लिंक केनाल से जोड़ा गया है । उल्लेखनीय यह है कि फ़तहसागर स्वयं के जलांचल से कम और पीछोला की लिंक नहर व इस फीडर नहर से जायादा भरता है । पीछोला में पानी अमरजोक नदी से आता है और इस तरह दो नदियों के पानी का अंतः जलांचल स्थानांन्तरण अतीत में किया जा चुका है । आज जाखम के पानी को जयसमंद पहुँचाने की अंतः जलांचल योजना को मूर्त रूप दिये जाने की आवश्यकता है ।
(6) बिना लागत झील संरक्षण –
झील संरक्षण बिना लागत सतत् रूप से करने में भी तत्कालीन नियोजक निष्णात थे । प्रथमतः तो उन्होंने झीलों का मोरी तल (sill level) ही इस प्रकार निर्धारित किया कि लगभग आधी भराव क्षमता नहर तल से नीचे रहे और काम में न ली जा सके। उदाहरण के लिये फतहसागर में कुल 10 मीटर (33फुट) गहराई में से नहर तल 4 मीटर (13 फुट) पर है शेष 6 मीटर (20 फुट) गहराई का पानी मूल डिज़ाइन के अनुसार संरक्षित जल संग्रह (डैड स्टोरेज) है। जल संग्रह क्षमता के आधार पर यह कुल क्षमता का लगभग 50% है । आज के विशेषज्ञ कुल भराव क्षमता का 10% ही डैड स्टोरेज रखते हैं । आज हम उनके द्वारा निर्धारित रिज़र्व डैड स्टोरेज को भी पंप करके झीलों का पैंदा निकालते रहते हैं जिससे मछलियाँ समाप्त हो जाती हैं और झीलों को वापस भरने में समय लगता है । इस कारण झील की चादर कभी कभी ही चल पाती हैं। ये परिपाटी इन झीलों की दुर्दशा का मुख्य कारण है । पुरानी प्रणाली में झीलों का पैंदा निकलने की नौबत ही नहीं आती थी जिससे इसमें पर्याप्त और बड़ी बड़ी मछलियाँ सदा ही रहती थीं जो जल को शुद्ध रखने में सक्षम थीं । उस समय हालत यह थी कि अगर आपके पाँव में फोड़ा हो रहा है और आपने पानी में अपना पैर रख दिया तो मछलियाँ तत्काल आ कर उस फोड़े का पीप चट्ट कर जातीं साबुन की बट्टी पानी में गिरने पर वह तत्काल मछलियों का भोजन बन जाती थी । इस रिजर्व पानी की पूर्व उपलब्धता के कारण बरसात में सामान्य सी वर्षा होने पर भी झीलें पूरी भर जातीं और कई कई दिन नाला चलने से पानी पलटा हो जाता था । इस कारण कितने ही लोग रोज़ इन झीलों में नहाते धोते फिर भी पानी साफ़ ही रहता था । आज हम मछलियाँ बचाने और बढ़ाने की नहीं, नहाने धोने पर रोक लगाने की तरफदारी कर रहे हैं ।
(7) नियोजित और निशुल्क गाद निकासी (Planned and costless desilting) –
सरकारी खर्चे से गाद (सिल्ट) निकालने का रिवाज़ अतीत में नहीं था क्योंकि अतीत के नीति निर्धारक यह भली भाँति जानते थे कि ईंटे, केलू आदि बनाने और खेतों में पणे के रूप में काम में लेने के लिये इस सिल्ट का कोई विकल्प नहीं है । इस कारण यह एक मूल्यवान कच्चामाल है जिसके बिना ईंट निर्माताओं और काश्तकारों का काम नहीं चल सकता है । अतीत में नीति यह थी संबंधित लाभार्थियों को आपने खर्चे पर साल दर साल पणा (सिल्ट) निकाल कर ले जाने की छूट दी जाती थी लेकिन पाबंदी यह थी कि सिल्ट (पणा) केवल वरावले (मुहाने) से ही निकाली जावे जो पीछोला में सिसारमा के पास और फतहसागर में नीमचमाता के पास रानी रोड के मोड़ पर था । इससे झीलों का पैंदा उघड़ने के कारण रिसाव बढ़ने की आशंका भी नही रहती थी और अगले साल बरावले में ही, जहाँ पानी का वेग रूकता है, सिल्ट वापस जमा मिलती थी जिसे आसानी से निकाला जा सकता था । बिना लागत के लगातार पणा नहीं निकला होता तो ये झीलें कभी की समतल मैदान बन चुकी होंती । आज यह सिल्ट (पणा) काश्तकारों द्वारा कम और बड़े ईंट निर्माताओं तथा वाटिकाओं व रिसोर्टो के मालिकों द्वारा ज्यादा काम में लिया जाने लगा है और इसीलिये ये कोई न कोई कारण बना कर सरकारी खर्चे से इसे निकलवाते हैं बाकी अंतिम उपयोग तो पुराना ही है। पेटे की अनियोजित खुदाई से कई बार सिल्ट निकासी के लिये खोदे गए खड्डों का पानी खड्डों में ही रह जाता है जो मुख्य जल संग्रह के केन्द्र से जुड़ नहीं पाता और पानी का कुल वास्तविक उपयोग घट जाता है । जाम गाद पेटे से रिसाव रोकती है जिसके हट जाने से रिसाव दो तीन साल के लिये बढ़ जाता है ।
(8) उपलब्ध जल का दोहरा उपयोग –
उपलब्ध जल का दक्षतम उपयोग हो इसके लिये अतीत में संग्रहित पानी को पहले सिंचाई के काम में लेने और सिंचाई के दौरान रिसे पानी को कुओं वावड़ियों से खींच कर पेयजल के काम में लेने की नीति हमारे पुरखों ने रखी जिसके अंर्तगत गुलाबबाग और सहेलियों की बाड़ी जैसे निकटवर्ती सिंचित क्षेत्र में कुएं और बावड़ियाँ बनवाईं । इस प्रणाली से उपलब्ध पानी का दोहरा उपयोग होता था तथा भू जल स्तर भी बना रहता था । नगर के पास ही अनाज, सब्जी और आम अमरूद जैसे फल तो खूब हो ही जाते और हरियाली भी रहती थी । आज अनियोजित नगरीय विकास के चलते नगर के आसपास खेती लायक जमीन ही नहीं बची है और सिंचाई प्रणाली अनुपयोगी हो चुकी है। इस कारण अब हम झीलों के पानी को सीधा पेयजल के काम लेते हैं जिससे इसके उपयोग की दक्षता तो घटी ही है, हरा क्षेत्र भी घट गया है और भूजल का स्तर भी नीचे चला गया है। अतीत में पेयजल के लिये पानी सीधा झीलों से न ले कर सिंचित क्षेत्र के मध्य निर्मित कुओं और बावड़ियों से लेने के कारण पानी अपेक्षाकृत रूप से शुद्ध होता था और इससे शुद्धिकरण में लगने वाला खर्चा कम होता था । उन दिनों दिन में दो बार नल आते थे और प्रेशर भी पूरा रहता था । सार्वजनिक नल भी लगभग हर मौहल्ले में थे । आज दो दिन में एक बार नल आते हैं, इस कारण घर घर में ट्यूब वैल हैं जिससे भू जल का स्तर गिरता जा रहा है।
(9) बाँध निर्माण में जल रिसाव रोकने के लिये सीसा पिलाने की तकनीक –
उदयपुर के तत्कालीन बाँधों से रिसाव नगण्य है जबकि आज के आधुनिक बाँधों में रिसाव की सुरक्षित निकासी के लिये ड्रेनेज गैलरी बनाने का प्रावधान है । नगणय रिसाव का कारण यह है कि इन बाँधों की नींवों में सीसा पिलाया गया है। इस तकनीक की पुष्टि जनासागर (बड़ी तालाब) की पाल पर लगे शिलालेख से होती है जिसमें यह लिखा है –
“दो लाख इक्कीस हजार रीप्या तालाब री प्रतिष्ठा कीदी जदी रूपा री तुलना कीदी । प्रोहित गरीबदास आधार कीदो . . सीसो फेरी न नीम साधी . . गजधर सुथार सुत नाथू . .1735 वर्ष “
सीसे के उपयोग से दीर्घकालीन जल अवरोधी क्षमता के सृजन की तकनीक पर अनुसंधान की आवश्यकता है ।
(10) वाष्पीकरण हानि को सीमित रखने की नीति –
अतीत के गुणीजन वाष्पीकरण हानि को कम करने के महत्व और तकनीक से भी परिचित थे जिन्होंने झीलों के पानी को रबी फसल में सिंचाई के काम में लेने की नीति रखी जिससे झीलों का जल स्तर गर्मी आते आते नहर तल तक आ जाता था और जल का फैलाव सीमित हो जाता था । सीमित फैलाव से वाष्पीकरण हानि, जो गर्मियों में अधिक होती है, कम हो जाती थी। रबी की सिंचाई से भू जल का पुर्नभरण भी भरपूर होता और सिंचाई के शेष पानी के निकास से आयड़ नदी में भी कुछ न कुछ बहाव बना ही रहता था । उदयपुर में साल में लगभग 2 मीटर पानी जल सतह से वाष्पीकृत होता है और वाष्पीकरण हानि की कुल मात्रा जल की गहराई, जल सतह के फैलाव, हवा की गति व आद्रता आदि पर आधारित होती है । पीछोला, फ़तहसागर और बड़ी के तालाबों से औसतन 46%, 39% और 30% पानी वाष्पीकरण से उड़ जाने का अनुमान है तो स्पष्ट है कि इसे कम से कम रखने की नीति अत्यंत महत्वपूर्ण है । अभी पूरे साल सरकारी पानी दो दिन में एक दिन आता है जिसके अपर्याप्त होने से घर घर में ट्यूब वैल भी बारहों महिने चलते हैं जिसमे भू जल का उपयोग होता है । आज भी वाष्पीकरण हानि को कम करने के लिये हम यह नीति अपना सकते हैं कि वर्षा और सर्दी की ऋतुओं में तो हम सरकारी सतही पानी रोज़ उपलब्ध करा कर इसका भरपूर उपयोग करें चाहे इससे झीलों का जल स्तर एक बार तेज़ी से कम होता नज़र आए और गर्मियों में सतही पानी का उपयोग न्यूनतम करते हुए भूजल का उपयोग करें तो समग्र रूप से हम जल की बचत कर सकते हैं ।
(11) पर्यावरण संतुलन का ययथोचित महत्व –
अतीत के तत्कालीन नियोजक यह जानते थे कि पानी, पत्थर या रेत आदि की तुलना में बहुत देर से गर्म होता है और उतनी ही देर से ठंडा होता है इसलिये यदि नगर के पास प्रचुर मात्रा में सतही जल हो तो समुद्र के किनारे की तरह दिन और रात के तापमान में अंतर कम रहेगा और मौसम सम-सीतोष्ण रहेगा । वे यह भी जानते थे कि हरियाली हवा को गर्म नहीं होने देती है और उसमें नमी बनाए रखती है जिससे मौसम तरोताज़ा रहता है और पेड़ हवा की गति को शिथिल करते हैं जिससे आँधी चलने की संभावना घटती है। वे यहाँ की हवाओं का रुख भी जानते थे जो गर्मियों में दक्षिण पश्चिम से उत्तर-पूर्व की ओर होता है। इन सब को ध्यान में रख कर उन्होंने नगर के दक्षिण पश्चिम में विशाल आकार की झीलें बनाईं और उत्तर-पूर्व में फतहसागर की नहरों से सिंचित होने वाला लगभग 1000 एकड़ का हरा भरा सिंचित क्षेत्र रखा । नगर के बाहर तो जंगल थे ही, उन्होंने आठ किलोमीटर लंबी शहरकोट से धिरे नगर के अंदरूनी 3.8 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के 16 प्रतिशत भाग मे सघन प्राकृतिक वन और इतने ही भाग में बाग-बगीचे बनाए । इसकी वजह से हमारे यहाँ गर्मियों में गर्मी कम और सर्दियों में सर्दी कम लगती थी, रात और दिन के तापमान में अंतर कम रहता था और आँधियाँ कभी कभार ही चलती थीं । घने जंगलों और हरियाली की वजह से वर्षा भी पर्याप्त होती थी जिससे यहाँ की झीलों की चादर एक एक माह तक चलती ही रहती थे। आज आबादी तो सात गुनी हो गई है लेकिन जंगल घटते गए हैं, गुलाब बाग जैसे बाग सात नहीं हुए हैं और हरे भरे क्षेत्र तो नाम मात्र के रह गए हैं क्योंकि लगभग सारा कृषि क्षेत्र नव विकसित कॉलोनियों की चपेट में आ चुका है। सन् 1901 से अब तक के वर्षा के आँकड़ों का विश्लेषण यह बताता है कि हमारे यहाँ औसत वार्षिक वर्षा जो सन् 1950 तक 660 मिलीमीटर (26″) थी अब घट कर 600 मिलीमीटर (24″) रह गई है जो पर्यावरण से हुई छेड़छाड़ का परिणाम है ।
(12) नगर नियोजन में जल प्रबंधन –
हमारे पुरखों ने आबादी क्षेत्र के लिये अनुपजाऊ पहाड़ी क्षेत्र चुना जो यहाँ के महलों, जगदीश मंदिर, गणेश घाटी, मेहताजी का टिम्बा आदि की स्थिति से स्पष्ट है। उपजाऊ भाग को उन्होंने कृषी कार्य के लिये छोड़ दिया था ताकि उपलब्ध जल का सिंचित कृषी के लिये उपयोग किया जा सके और नगर में ग्रीन बेल्ट प्रचुर रूप में रहे। जगह जगह पर नोहरे और चौक थे जिसका काफ़ी भाग कच्चा था और घरों में भी बीचों बीच एक कच्चा चौक होता था जिसमें तुलसी केले आदि लगे रहते थे । अधिकांश प्लॉट मालिक यह धारणा रखने लगे हैं कि प्लॉट में खुला स्थान छोड़ना मूर्खता है । तथाकथित आर्किटैक्ट अपना बिज़नेस न गंवाने के चक्कर में भवन निर्माता को खुले स्थानों की उपयोगिता का तकनीकि आधार ही प्रकट नहीं करते हैं । बाउंड्री से बाउंड्री तक निर्माण करना आज भवन निर्माता की प्रतिष्ठा का मापदंड बन गया है । विकास के मायने यह हो रहे हैं कि सड़क का कोई भी भाग कच्चा न रहे उस पर डामर या फिर सीमेंट कंक्रीट हो । इससे बरसाती पानी जमीन में नहीं समा पाता और सड़कें ही दरिया बन जाती हैं । चाहे प्लॉट के अंदर हो या सड़क पर, हज़ारों वर्गमीटर भू सतह को भारी खर्च कर पहले तो हम कंकरीट या डामर से जल रोधी बना कर भू जल का प्राकृतिक पुर्नभरण रोकने का पक्का इंतज़ाम करते हैं फिर कुछ भवनों की कुछ वर्गमीटर छतों का पानी पाइपों के माध्यम से विद्यमान ट्यूब वैल में डालने का ‘वाटर हारवेस्टिंग‘ कानून बना कर भू-जल के पुर्नभरण का टोटका करते हैं ।
(13) जल संरक्षण को पुष्ट करने वाली हमारे अतीत की खाद्य नीति –
पानी की कुल खपत का 70% भाग खेती के लिये, 15% भाग उद्योगों के लिये, 10% भाग पेय जल और घरेलू उपयोग के लिये व शेष 5% विविध उपयोग में आता है । पानी का घरेलू उपयोग घटाने पर तो चर्चा होती रहती है लेकिन खेती में इसके उपयोग में कमी लाने पर अभी तक विशेष ज़ोर नहीं दिया गया है । हम में से प्रत्येक को रोज़ मात्र 2 से 4 लिटर पानी पीने के लिये और 100 से 150 लिटर पानी नहाने धोने जैसे कामों के लिये चाहिये परंतु जो आहार हम रोज़ लेते हैं, उसे तैयार करने में काम आने वाली सामग्री जैसे अनाज, मांस, सब्ज़ी, फल, आदि के प्रतिशत व किस्म के आधार पर 2000 से 5000 लिटर पानी की खपत हो जाती है । पानी की खपत के इस अनुमान में आहार में काम आने वाली सामग्री को उत्पादित करने में लगने वाले पानी की मात्रा भी शामिल है। उदाहरण के लिये यह उल्लेख करना है कि जहाँ एक किलो गेहूँ के उत्पादन के लिये औसतन 1000 लिटर पानी की आवश्यकता होती है वहीं एक किलो जौ के लिये 700 लिटर, एक किलो चने के लिये 600 लिटर पानी ही चाहिये जबकि एक किलो चाँवल के लिये 3500 लिटर पानी चाहिये। इन सबकी तुलना में आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि एक किलो माँस के लिये 15,500 लिटर पानी की आवश्यकता होती है । उदयपुर क्षेत्र में निकट अतीत में अच्छे अच्छे घरों के लोग साल में तीन चार माह मक्की खाया करते थे और गेहूँ में जौ, चना मिला अन्न खाने का रिवाज भी सामान्य सा था । चावल किसी त्योहार या पूनम, ग्यारस आदि पर ही बनते थे । एक व्यक्ति एक वर्ष में औसत 60 किलो अन्न खाता है यानि प्रति एक लाख लोग 60 लाख किलो अन्न की खपत होती है । अगर ये सब खालिस गेहूँ खोने के बजाय 75% गेहूँ, 20% जौ और 5% चने का मिश्रित अनाज खावें तो गेहूँ के बजाय 12 लाख किलो जौ और 3 लाख किलो चने की खपत होने लगेगी और जौ खाने से 36 करोड़ लिटर व चने खाने से 12 करोड़ लिटर यानि कुल 48 करोड़ लिटर पानी प्रति वर्ष बच सकता है । मक्की खाने पर यह गणित और भी गहरा हो जाता है । यदि बारह महिनों में से तीन महिने मक्का या बाजरा खाया जाय तो एक लाख की आबादी के लिये 15 लाख किलो गेहूँ के बजाय मक्का या बाजरे की खपत होगी और 105 करोड़ लिटर पानी बचेगा । हमारे पुरखे यह नीति अपनाते थे जिससे पानी की इतनी मारामारी नहीं थी।
(14) उपसंहार –
हमारे पुरखों की दूरदर्शिता से हमने कुछ भी ग्रहण नहीं किया है। यहाँ पर ‘‘घर का जोगी जोगणा और आन गाँव का सिद्ध‘‘ की कहावत पूरी तरह से चरित्रार्थ हो रही है। बाहर से आये कन्सल्टैंट लाखों की फीस ले जाते हैं और सतही आंकड़ों पर आधारित ऐसी कागज़ी योजना हमारे हाथों में थमा जाते हैं जिनकी रिपोर्ट और उसकी साज सज्जा केवल देखने में ही सुंदर होती है, अंदर ज्यादातर कॉपी पेस्ट ही होता है । ऐसी अव्यावहारिक योजनाओं के क्रियान्वन से खर्चा तो खूब हो जाता है लेकिन परिणाम शून्य, अल्पकालीन या कभी कभी ऋणात्मक रहता है । विकास कार्यों का क्रियान्वन ऐसे हाथों में है जिन्हें उदयपुर से कोई लगाव नहीं है और न कोई जबाबदेही है। इस सब के चलते विकास की आँधी में हम उदयपुर के उत्कृष्ट जल प्रबंधन की तकनीक और पहचान खोते जा रहे हैं। नागरिक इस स्थिति के या तो मूक दर्शक हो रहे हैं या फिर इतना सोचने की उन्हें फुर्सत ही नहीं है। यह एक चेतावनीपूर्ण स्थिति है। ज़रूरी है कि हम समय रहते चेतें व स्थिति को और बिगड़ने से रोकें। हमें उदयपुर क्षेत्र के अतीत की जल प्रबंधन प्रणाली व तकनीक से शिक्षा लेनी होगी और जल प्रबंधन कार्यों को स्थानीय ढांचे में ढ़ालना होगा और स्थानीय कौशल को बढ़ावा देना होगा। ऐसे कार्यों के निर्देशन के लिये स्थानीय प्रबुद्ध नागरिकों का एक नियंत्रण मंडल हो, बाहरी कन्सल्टेंटों की रिपोर्टों पर टिप्पणी के लिये संबंधित विषय के ज्ञाताओं की एक अधिकार प्राप्त तकनीकि समिति गठित करने, यहाँ की झीलों के लिये किसी एक धणी धोरी विभाग या संस्था को अधिकृत करने जैसे कई कदम उदयपुर के मूल गौरव, धरोहर व जल और पर्यावरण संरक्षण के लिये आवश्यक उठाने की आवश्यकता है। इसके लिये जन जन को अपने से पहले उदयपुर के लिये समर्पित होना होगा व अपनी जड़ता छोड़नी होगी ।
– ज्ञान प्रकाश सोनी,
एम. ई. (जलोपयोग प्रबंध),
आई आई टी, रूड़की
Sir, apne research KIA Jo PhD k liye tha.